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________________ दूसरे महाव्रत की पांच भावना-- (1) अच्छी तरह सोच विचार कर शान्ति से रागद्वेष रहित भाषा बोलना। (2) क्रोध का निग्रह करना (3) लोभ का निग्रह करना ( उपलक्षण से मान माया का भी निग्रह करना ) अर्थात क्रोधादि कषाय भाव की अवस्था में मौन रखना / (4) भय का त्याग कर निर्भय होने का अभ्यास करना / (5) हास्य प्रकृति का परिवर्तन कर गम्भीर स्वभाव होना / तीसरे महाव्रत की पांच भावनाः-- (1) उपाश्रय की सभी बातों के विचार सहित प्राज्ञा लेना। (2) गुरुजन या प्राचार्य की प्राज्ञा लेकर ही प्राहार करना या किसी वस्तु का आस्वादन करना। (3) बड़े स्थान में या अनेक विभाग युक्त स्थान में क्षेत्र सीमा स्पष्ट कर के प्राज्ञा लेना या शय्यादाता जितने स्थान की प्राज्ञा दे उतने स्थान का ही उपयोग करना / (4) प्रत्येक आवश्यक वस्तुओं की यथा समय पुनः प्राज्ञा लेने की प्रवृति एवं अभ्यास होना। (5) सहचारी साधुनों के उपकरणादि की भी प्राज्ञा लेकर ग्रहण करना। चौथे महाव्रत की पांच भावनाः-- (1) स्त्री सम्बन्धी रागजनक वार्ता न करना। (2) स्त्री के मनोहर अंगों का राग भाव से अवलोकन नहीं करना। (3) पूर्व के भोगों का, ऐस पाराम का स्मरण, चिन्तन न करना (4) अति भोजन या सरस भोजन नहीं करना। (५).स्त्री, पशु प्रादि रहित उपाश्रय में रहना।
SR No.004386
Book TitleAcharang Sutra Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgam Navneet Prakashan Samiti
PublisherAgam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages60
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aagam_saar
File Size6 MB
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