________________ 28 (6) कभी दाता देने योग्य स्थिति में न हो या विराधना संभव हो तो भिक्षु प्राज्ञा प्राप्त करके स्वयं उसी बर्तन से उलीच कर अथवा लोटे गिलास या अपने पात्र से गृहस्वामी की स्वीकृति अनुसार ले सकता है। (7) सचित स्थानों के अत्यन्त निकट रखे हुए या अचेतन पदार्थो के उपर रखे हुए जल को अथवा सचित जल लेने के बर्तन . से अचित जल दे तो नहीं लेना। . आठवां उद्देशक:-- . (1) बीज गुटली आदि से युक्त अचित जल हो और उसे छानकर दे तो भी नहीं लेना। (2) किधर से भी सुगन्ध पा रही हो तो उसमें प्राशक्त नहीं होना। (3) शुष्क या हरी वनस्पति के बीज, फल, पत्र, तरकारी आदि पूर्ण शस्त्रपरिणत अचित होने पर ही ग्रहण करना कल्पता है। (4) किसी पदार्थ में रसज प्रादि त्रस जीव उत्पन्न हुए हों तो उस पदार्थ को शस्त्रपरणित या प्रचित होने के पूर्व नहीं लेना। (5) कुभी पक्व फल प्रशस्त्र परिणत एवं अप्रायुक्त होते हैं, ऐसा जानकर उन्हें नहीं लेना। नवमां उद्देशकः-- (1) साधु को प्राहार देकर अन्य प्राहार बनावे, ऐसा ज्ञात होने पर या सम्भव लगे तो भी नहीं लेना। (2) भक्ति सम्पन्न या पारिवारिक घरों में प्राहार निष्पन्न होने के पूर्व जाकर फिर पुनः जाना नहीं कल्पता है / क्योंकि वहां दोष लगने की सम्भावना अधिक रहती है। ...