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________________ (5) कभी संस्कारित, असंस्कारित, सूखा, ठण्डा, बासी, पुराणा, नीरस, जैसा भी प्राहार मिल जाता अथवा कभी नहीं मिलता उसी में सन्तुष्ट एवं प्रसन्न रहते। (6) भगवान् कषाय रहित, विगयों को गृद्धि रहित एवं शब्दादि की अशक्ति से रहित होकर सदा ध्यान में लीन रहते / कभी उर्ध्व लोक आदि के स्वरूप में, कभी आत्म स्वरूप में अवलम्बन लेकर ध्यान करते थे। (7) भगवान् ने छमस्थ काल में संयमराधन करते हुए कभी भी प्रमादाचरण (दोष अतिचार) का सेवन नहीं किया था। // प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त // - द्वितीय श्रुत स्कन्ध :प्रथम अध्ययन का सारांश: इस अध्ययन में आहार-पानी की गवेषणा विधि का कथन विभिन्न प्रकारों से ग्यारह उद्देशों में किया गया है। प्रथम उद्देशकः-- (1) हरित, बीज, फूलण और सूक्ष्म त्रस जीव युक्त आहार नहीं लेना, भूल से पा जाए तो शोधन करना, शोधन न हो सके तो परठ देना। (2) सूखे धान्य, बीज, मूगफली प्रादि प्रखण्ड न हो या अग्नि पक्व हो तो कल्पनीय है।
SR No.004386
Book TitleAcharang Sutra Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgam Navneet Prakashan Samiti
PublisherAgam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages60
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aagam_saar
File Size6 MB
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