________________ (2) शीत, उष्ण, तृण-स्पर्श आदि कष्टों को समभाव से सहन करने पर उनके कर्मों की महा निर्जरा होती है। (3) ऐसे वीर पुरुषों के संयम और शरीर को देखकर अपनी प्रात्मा को भी शिक्षित एवं उत्साहित करना चाहिए / (4) समुद्र के बीच उच्च स्थान पर आए हुए असंदीन (नहीं डूबने वाले) द्वीप के समान धीर वीर साधक को परति अादि बाधाएं कुछ भी नहीं कर सकती है / (5) वे महामुनि शिष्यों को भी इसी प्रकार शिक्षण देकर संयम में दृढ़ करते हैं। चतुर्थ उद्देशकः-- (1) कई साधक शिक्षाप्रद प्रेरणा के वचनों को सहन नहीं कर पाते। वे गुरू से या संयम से विमुख हो जाते हैं और कई तो श्रद्धा से भी भ्रष्ट हो जाते हैं / ऐहिक इच्छाओं के कारण भ्रष्ट बने उनका संयम ग्रहण करना निरर्थक हो जाता है। (2) वे सामान्य जन के निन्दा पात्र बनते हैं, जन्म मरण बढ़ाते है। (3) उन्नत वैराग्य से दीक्षित होकर भी कई इच्छाओं और विषयों के वशीभूत होकर पुनः संयम त्याग देते हैं उनकी सम्पूर्ण यश-कीति धमिल हो जाती है। (4) इस सब अवस्थाओं का विचार कर मोक्षार्थी साधक सदा आगमानुसार ही संयम में पराक्रम करें। पंचम उद्देशकः-- (1) ग्रामादिक किसी भी स्थल पर कोई भी कष्ट आवे तो मुनि उसे समभाव से सहन करें। (2) मुनि की सेवा में उपस्थित व्यक्तियों को वह उनकी