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________________ (3) भगवदाज्ञा पालक मुनि एकत्व भाव में लीन बनकर कर्म क्षय करने में पुरूषार्थ करें। (4) कर्म रूपी जीर्ण काष्ट को तप संयम रूपी अग्नि में शीघ्र भस्म कर देना चाहिए। (5) साधक को प्रत्येक धर्माचरण में प्रात्म समाधि की सुरक्षा का प्रमुख ध्यान रखना चाहिए। (6) क्षण भंगुर जीवन को जानकर और समस्त प्राणियों के दुःखों का अनुभव करके पंडित साधक कषायों और पापों का सर्वथा त्याग कर दें। चतुर्थ उद्देशक:-- (1) संयम और तप का पाराधन सरल नहीं है / आत्म समाधि के साथ-साथ शरीर की सर्वस्व आहुति करने पर ही लक्ष्य की पुष्टि होती है / अतः साधक हर अवस्था में प्रसन्न रहना सीखे और शरीर के प्रति ममत्व-भाव का भी त्याग करें। (2) संयम में लीन रहते हुए खन मांस को सुखा डाले अर्थात् शरीर को कृश कर कर्मों की समाप्ति करे। वही वीर मुमुक्षु साधक है। (3) कर्मों का विचित्र फल जानकर उनसे मुक्त होने का सदा प्रयास करें। (4) सदा ऐसे ही त्यागी वीर पुरुषों का आदर्श सामने रख कर आत्म विकास करने में प्रयत्नशील रहना चाहिए। पांचवे अध्ययन का सारांश:-- प्रथम उद्देशकः-- (1) सांसारिक प्राणी प्रयोजना से या बिना प्रयोजन के भी जोवों का घातकर के फिर उसी योनियों में जाते है।
SR No.004386
Book TitleAcharang Sutra Saransh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgam Navneet Prakashan Samiti
PublisherAgam Navneet Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages60
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aagam_saar
File Size6 MB
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