________________ सम्भोगकल्पः [ 279] णणु रागदोसियत्तं संभुंजणे एगएगऽसंभोगे। भण्णति ण रागदोसा सुणसू जं कारणं एत्थं 2505 संभुजणा विसुद्धा उवग्गहं कुणति णाणचरणाणं। संभुंजणा असुद्धा चरित्तभेदं वियाणाहि // 2506 // भोगेण पमाएणं तद्दोसाणं तु होति समणुण्णा। एवं चरित्तभेदो किं पुण सो कुव्वति पमादं // 2507 // पूयारसपडिबद्धो सुद्ध असुद्धं करेति संभोगं / ' अहवा वि अजाणतो संभोगविहीए गुणदोसे 2508 पूजाहेतु पमादी सेवति रसहेउगं च तस्सेवी / णाणादिसुद्धकप्पं कुणति असुद्धं तु सो एवं // 2509 // पारस मूलपदा खलु संभोगविहीय वण्णिता सुत्ते। जत्तो पावादाणं भणितं दुट्ठाण उक्खेवो // 2510 // उवहिसुतभत्तपाणे अंजलीपग्गहे इय। वायणा य णिकाए य अन्भुट्ठाणे त्ति यावरे // 2511 // कितिकम्मस्स य करणे वेतावच्चकरणे इय / समोसरण सन्निसेज्जा कहाए य पबंधणे // 2512 // एते बारसभेदा संभोगविहीय तू समक्खाता। पावादाणं तेसु तु इमेहिं ठाणेहिं णायव्वं // 2513 / /