________________ शृङ्गमादितं कार्यम् [173] एगत्थ भोयणेणं पीती भवतिकभाण जिमित त्ति। बहुमाणं पिय कुव्वति सहायगत्तं च तेणेव // 1551 // केई अलद्धिमंता ण लभंति सलद्विया चिय लभंति / जं लद्धं सामण्णं संभोगमित्तो उ इच्छंति // 1552 // कुलगणसंघत्थेरा मज्जायाओ ठवेंति हिंडंता / जह सकुले परिताणो णत्थी उवसंपया चेव // 1553 // कुलगणसंघढवणा जाओ य कताओ तहिं तु थेरेहिं। कुलबहुमज्जाता विव ताओ य णतिकमिजति 1554 कज्जेसु सिंगभूतं कज्जं तू सिंगणाइयं होति / तं चेनिसाहुसंजति होज्जाहि सगच्छपरमच्छे / संभोगकप्पो गतो // 1555 / / तं पुण होज्जाहि कतं कोति भणेज्जाहि संजति जति वा / मज्झेस दुवक्खरओ कहंति सो पुच्छितो आह / कीतो मे व पइट्ठो हाउं वा आणिओ धरेंतो वा। दारे वास जानो अहवा राजा इव पलावी // 1557 // अमिऊणं घेत्तुं दासाणि करेउ अब लोभेउं / वस्थासणमादीहिं तु तत्थ पमादो ण कायवो 1558 गच्छस्स रक्खणट्ठा चारित्तठिते अवस्स कायव्वं / इहरा तू मज्जाता गच्छस्स तु फेडिया होति 1559