________________ कल्पसूत्र मूळ // 113 // लभिज्जा, से य पमाणपत्ते होउ अलाहिइय वत्तव्वं, सिआ, से। किमाहु ? भंते!, एवइएणं अट्ठो गिलाणस्स, सिया णं एवं वयंत परो / वइज्जा-पडिगाहेह अज्जो! पच्छा तुमं भोक्खसि वा पा(दा)हिसि / वा, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए, नो से कप्पइ गिलाणनीसाए पडिगाहित्तए॥ सू.१८(२७०)॥वासावासं पज्जोसविआणं अत्थि णं थेराणं तहप्पगाराइं कुलाई कडाइं पत्तियाई थिज्जाइं वेसासियाइं सम्मयाइं। बहुमयाइं अणुमयाइं भवंति, त(ज)त्थ से नो कप्पइ अदक्खु वइत्तए // 113 //