________________ शत्रुञ्जय-कल्पवृत्ती 10000000000000000000000. 10000000000000000000000000000000000. पद्मप्रभप्रभुः पृथ्वीं क्रमाभ्यां पावयन् क्रमात् / भूरिसाधुयुतः शत्रु-जयेऽथ समवासरत् // 6 // तत्र द्वादश पर्पत्सू-पविष्टासु यथाक्रमम् / पद्मप्रभोऽतिदिशति देशनां भविनां पुरः // 7 // सुपात्रेभ्यो दददानं भव्यजीवः सदादरात् / धर्म श्राद्ध इवाप्नोति कल्याणकमलां किल // 8 // तथाहि-अयोध्यायामभूद्धर्म-श्रेष्ठी पत्नी मनोरमा / पुत्रः पद्मरथो धर्म-कमककरणादरः // 9 // श्रेष्ठी प्रोवाच पुत्राग्रे श्रीरिक्तो भाति नो नरः / तेनान्यविषये गत्वाऽऽनेष्यामि विभवं बहुम् // 10 // यतः-“जाई रूवं विजा तिनि वि निवडंतु कंदरे विवरे / अत्थुच्चिन परिवडढ़उ जेण गुणा पायडा हुंति // 11 // रूप्यकाञ्चनमञ्जिष्ठा-मुख्यभूरिक्रयाणकः। भृत्वाऽनोऽह्नि शुभे धर्मोऽचालीदन्यपुरं प्रति // 12 // मार्गे गच्छन् कमाद्धर्म आयातांस्तस्करान् बहून् / निरीक्ष्य सम्मुखं गत्वा तेषां नतिं व्यधुधु रि // 13 // हसन्तस्तस्कराः प्रोचु-र्मो वणिग् ! मायिकोत्तम ! / यतः पादौ समेत्याऽस्मान्नमश्चक्र मलिम्लुचान् // 14 // यतः- "मायातीलह माणुसह किमु पतीज ण जाई / नीलकंठ महुरं लवइ सविषभुयंगम खाइ" // 15 // श्रेष्ठयाह यस्य यद्वस्तु ग्रहिष्यति बलादिह / स परत्र गतो लक्ष-कोटिगुणं च दास्यति // 16 // यतः-वहमारणअब्भक्खाण-दाणपरघणविलोवणाईणं / सव्वजहन्नो उदो दसगुणिनो इक्कसि कयाणं // 17 // तिव्वयरे उ पोसे सयगुणिो सयसहस्सकोडिगुणो / कोडाकोडिगुणो वा हुञ्ज विवागो बहुतरो वा // 18|| हसन्तो जगदुः स्तेना अस्मभ्यं वस्तु देहि भो ! / इहैव दास्यते वस्तु तुभ्यमस्माभिरञ्जसा // 16 // श्रेष्ठयवक कोऽत्र साक्ष्यस्ति यत् साक्षों पूरयिष्यति / चौराः प्रोचुरयं साक्षी मार्जारोऽरण्यवासकः / / 20 / / ततो वस्त्वखिलं त्यक्त्वा गणयित्वा स नैगमः / तस्करेभ्यो वितीर्याथ नमश्चक्र स धीरवाग् // 21 // हसन्तस्तस्कग वस्तु गृहीत्वा श्रीपुरे ययुः / वणिक् छन्नं चलस्तत्र नगरे समुपेयिवान् // 22 // मिलित्वा भूपतेधर्मः प्राहेति त्वं प्रजापतिः / अशरणस्य शरणं शिष्ट सङ्ग्रहकारकः // 23 // दुष्टस्य दमको दीन-दुःस्थानाथादिपालकः / दाता भोक्ता विवेकी त्वं चिरं नन्द चिरं जय // 24 // राजाऽभाणीद् वणिक् ! किं ते कार्य सम्प्रति विद्यते / धर्म आचष्ट मे वस्तु गृहीतं तस्करैः पथि // 25 // ततो भूपतिराकार्य मन्त्रीशान प्रत्यवग् दृढम् / अस्य वस्तु गृहीतं यै-स्तान् विलोक्याऽर्यतां च तत् // 26 // ततस्ते मन्त्रिणोऽभ्येत्य प्रोचुः क्व सन्ति तस्कराः ? / धर्मश्चौरगृहं तेभ्यो दर्शयामास तत्क्षणात् // 27 // ततस्तत्र स्थिताचौराः प्रोक्ता मन्त्रीश्वरैरिति / युष्माभिरस्य यद्वस्तु गृहीतं तत् समर्प्यताम् // 28 // स्तेनास्ते जगदुः स्तैन्यं वयं कुर्मः कदापि न / यद्यस्माभिगृहीतं चेद् वस्तु साक्ष्यस्ति कोऽत्र च // 26 // प्रोचुर्मन्त्रीश्वराः धर्म साक्षिणं त्वमिहानय / ततो धर्मोऽऽनयत्तत्र मार्जारं कृष्णदेहभम् // 30 // तदा ते तस्कराः प्रोचुः सोऽभूद् रक्ततनुच्छविः / तेनार्य वक्ति कूटं तु ग्रहीतु मे धनं ध्रुवम् // 31 // ततो मन्त्रीश्वराः प्रोचुभो ! स्तेना यूयकं ध्र वम् / धनं जगृहिथाऽस्यवा-र्पयतास्मै ततः किल // 32 // ततस्तान कुट्टयित्वाऽलं मन्त्रीशास्तस्य तद् धनम् / निखिलं दापयामासु-चौरेभ्यः प्रसभं तदा // 33 // ततस्ते तस्करा लक्ष्मी-हरणान्मेदिनीभुजा / स्वदेशं त्याजिता धर्मः श्रेष्ठी सन्मानितः पुनः // 34 // धर्मो द्विगुणमूल्येन तद्वस्तु निखिलं तदा / विक्रीय टङ्कान् लक्ष मर्जयामास कर्मतः // 35 / / क्षेत्रेषु सप्तसु ततो व्ययन स्व विभवं तदा / धर्मश्चकार सद्धर्म प्रतिपन्नं पुरापि यत् // 36 //