________________ [64-19] श्रीसिंहनन्दिभट्टारकविरचित . पञ्चनमस्कृतिदीपकसंदर्भः॥ नमाम्यहं तं देवेशं, लक्ष्मीरात्यन्तिकी स्वयम् / यस्य निर्द्धतकर्मेन्धधूमस्यापि विराजते // 1 // यस्य प्रभावो देवेशैरपि वक्तुं न शक्यते / तत्र मानुषव्यापारः, केवलं हास्यतास्पदम् // 2 // विन-चौरारि-मार्याद्याः, शाकिन्यादिगणा अपि / यस्य स्मरणमात्रेण, प्रलयं यान्ति तेऽखिलाः // 3 // यस्य प्रभावतो बुद्धिर्जायते जीवसंनिभा / ... तं नमस्कृत्य पश्चाङ्गमन्त्रं तत्कल्पमुच्यते // 4 // तत्राधिकाराः पश्चैव, साधनं ध्यान-कर्मणी। स्तवनं फलमित्येतद्, यदुक्तं पूर्वसरिभिः॥५॥ तदेव संक्षिप्यारभ्य, प्रक्रियाद्वारतः खलु / करोमि देयं नान्यस्य, दुष्टमिथ्यादृशः खलु // 6 // तदेव गायत्रीमन्त्रं, तदेवाष्टकमुच्यते / तदेव पश्चकं प्रोक्तं, षट्द(दार्शनिकसम्मतम् / / 7 // - अनुवाद ते देवाधिदेवने हुं नमस्कार करुं छु के कर्मरूपी इन्धननो धूमाडो दूर थवाथी (8) जेमनी संपूर्ण लक्ष्मी स्वयं अत्यंत शोमे छे // 1 // 20 जेमनो प्रभाव देवेंदो पण कद्देवाने शक्तिमान नथी, त्यां मनुष्यनी प्रवृत्ति केवळ हांसीने पात्र गणाय // 2 // जेमना स्मरणमात्रथी विघ्न, चोर, शत्रु अने मरकी वगेरे तेमज शाकिनी आदिना समूहो नाश पामे के जेना प्रभावथी बुद्धि जीवसदृश असंमृढ बने छ (2) ते पंचांग (पंचमंगल) मंत्रने नमस्कार करीने हुं तेनो कल्प कहुँ छु // 3-1 // 25 ते (कल्प) मा 1 साधन, 2 ध्यान, 3 कर्म-क्रिया, 4 स्तवन अने ५फळ-ए पांच अधिकारो के. (आ विषयमां) जे पूर्वाचार्योए का छे तेने ज संक्षेपीने अने प्रक्रिया द्वारथी शरु करीने ई कहं आ कल्प (अयोग्य एवा) अन्यने न आपवो अने दुष्ट एवा मिथ्यादृष्टिने तो न ज आपवो // 5-6 // ते (पंच मंगल)ज गायत्री मंत्र छे, ते ज अष्टक छे, अने ते ज छये दर्शनीओने मान्य एवं पंचक छे // 7 // .: 30 *मूल रचना भाषानी दृष्टिए विचित्र होवाथी केटलाक स्थळोमा मात्र भावानुवाद आपेल छे। 25