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________________ - 34 [जनांसद्धान्तश्रीमान् शंकराचार्यजी महाराज ने " नैकस्मिन्नसम्भवात् " इस ब्रह्मसूत्र से यह समझ कर कि एक में विरुद्ध धर्मों का होना असम्भव है, अपने भाष्य में स्थाद्वाद का खंडन करने का प्रयत्न किया है / परन्तु ऊपर के विवेचन से सुज्ञ पाठकों को विदित हो गया होगा कि स्थाद्वाद एक ऐसी पोलिसी है, ऐसी विचारशोधक और वस्तुव्यवस्थापक दृष्टि है कि उस जीवनव्यापी एवं जीवनोपयोगी नैसर्गिक सिद्धान्त का विरोध हो ही नहीं सकता है / वह हमें, वस्तु का अवलोकन कैसे करना यह सिखाता है / इसके फलस्वरूप, हमारी घटि विशाल बनती है और मनोवृत्ति उदार / यह वह सिद्धान्त है, जो भिन्न भिन्न दार्शनिकों को, उनके अन्योन्य विरुद्ध दीखते हुए मतों का समन्वय कर, एक केन्द्र पर लाने का सामर्थ रखता है / इस नीति की बदोलत, मनुष्य का मतावेशजनित मानस कालुष्य धुल जाता है और जीवन-मंगल का साधनभूत समभाव उसे प्राप्त हाता है। यह नीति हमारी, समग्र प्रजा की जीवन-शान्ति के लिए कितनी उपयोगी है यह विचारक सज्जन बहुत आसानी से समझ सकते हैं / जरा सोचने की बात है कि सांख्य ने सत्त्व, रजस और तमस इन विरुद्ध गुणों को प्रकृति में कैसे संगत किया ? भट्ट और मुरारि ने वस्तु को जाति--व्यक्ति-- उभयात्मक क्यों मंजूर रक्खा ? महान पतञ्जलिने [योगभूत्र के तीसरे पाद मेंx] वस्तुगत धर्मपरिणाम, लक्षणपरिणाम और अवस्थापरिणाम का व्याख्यान कर के अनकान्तवाद का आश्रयण किया है या नहीं ? ब्रह्म को व्यवहार से बद्ध और परमार्थ से अबद्ध बतानेवाले वेदान्ती को स्याद्वाद का अनुयायी होना पडा या नहीं ? सीधी बात है कि: x एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याताः // 13 //
SR No.004298
Book TitleJain Siddhant Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherBhogilal Dagdusha Jain
Publication Year1937
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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