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________________ 32 . [जैनसिद्धान्त-. में उपयोगी होती है, तो दूसरी अवस्था में अनुपयोगी अथवा हानिकारक होती है तो इस तरह की भिन्न भिन्न अपेक्षा से एक ही चीज को उपयोगी और अनुपयोगी कहना क्या असंगत होगा ? किसी ने अन्नदान को श्रेष्ठ बतलाया, तो दूसरे ने विद्यादान को, तीसरे ने जलदान को और चौथे ने औषधदान को; परन्तु इन भिन्न भिन्न मतों को भिन्न भिन्न अपेक्षा से विचारा जाय तो इन सब की संगति हो सकती है। कौनसा दान बडा ? इसका एक ही जवाब है कि जिस समय जिसकी जरूरत / अन्न की आवश्यकता में अन्नदान बड़ा, और विद्या के मौके पर विद्यादान बड़ा / तृषार्त के लिए जल-दान बड़ा और रोगात के लिए औषधदान / इस प्रकार भिन्न भिन्न अपेक्षाटिओं से वस्तु का या भिन्न भिन्न मतों का अबलोकन करना स्थाद्वाद सिखाता है / इस * चावी ' का उपयोग करना मनुष्य यदि सीखे-क्या राजकारण में और क्या सामाजिक प्रकरण में, क्या धार्मिक विषय में और क्या व्यवहार में, तो उसका वैयक्तिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और धार्मिक जीवन बहुत सरल हो जायगा / व्यर्थ के कई कलहों में यह जगत् डूबा है और दुःखी हो रहा है। इस अनेकान्तवाहिनी मीमांसा से कई कलहों का अन्त आ सकता है और मनुष्य-जाति में परस्पर सौमनस्य स्थापित हो सकता है। व्यवहार में मनुष्य स्वार्थवश हो कर हठ, दुराग्रह और अनीति करे, यह देखते हैं, परन्तु धार्मिक और दार्शनिक प्रकरण में इस अनेकान्तदृष्टि' की महान् चावी से जब मतभेदों की संगति की जा सकती है, फिर क्यों वह हठ को पोष रहा है और विरोधवृत्ति को बढ़ा रहा है ? द्वैताद्वैत का झगड़ा काई को ? जड़ और चेतन इस तत्त्व-द्वैत से द्वैतवाद है; और आत्मभावना के लिए अद्वैतवाद है। क्योंकि जगमोह से उपरत हो कर
SR No.004298
Book TitleJain Siddhant Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherBhogilal Dagdusha Jain
Publication Year1937
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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