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________________ - दिग्दर्शन ] . . " दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः। कर्म-बीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः॥" [उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र ] अर्थात-जैसे, बीज आत्यन्तिक दग्ध होने पर अंकुर का प्रादुर्भाव नहीं होता, वैसे, कर्मरूप बीज सर्वथा दग्ध होने पर संसार (भवावतार ) रूप अंकुर पैदा नहीं होता। महाभारत में भी [ गौतम्युपाख्यान में ] कहा है:"तैलक्षयाद् यथा दीपो निर्वाणमधिगच्छति / कर्मक्षयात् तथा जन्तुः शरीरं नाधिगच्छति // " अर्थात्-तेल क्षीण हो जाने पर, जैसे दीपक शान्त हो जाता है, वैसे, कर्म क्षीण हो जाने पर जीव ऐसी शान्त स्थिति को प्राप्त होता है कि पुनः शरीर धारण नहीं करता। ___ और भी वैदिक विद्वानों ने इस बात पर जोर देते हुए कहा है:"क्षीरात् समुद्धृतं त्वाज्यं न पुनः क्षीरतां व्रजेत् / * 'पृथक्कृतस्तु कर्मभ्यो नात्मा स्यात् कर्मवान् पुनः॥" "यथा नीता रसेन्द्रेण धातवः शातकुम्भताम् / पुनरावृत्तये न स्युस्तद्वदात्मापि योगिनाम् // " अर्थात्-दूध में से निकाला हुआ घी, जैसे, फिर दूधरूप को प्राप्त नहीं होता, वैसे, कर्मो से पृथग्भूत हुआ जीव पुनः कर्मयुक्त नहीं होता।
SR No.004298
Book TitleJain Siddhant Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherBhogilal Dagdusha Jain
Publication Year1937
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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