________________ दिग्दर्शन ] * 11 effect ] पर व्यवस्थित बतला कर ईश्वर-कर्तृत्व से स्पष्ट इन्कार करता है। यह भ्रम न होना चाहिए कि ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में न मानने से जैनदर्शन निरीश्वरवादी है। कोई भी, निरीश्वरवादी तब कहा जा सकता है, जब कि वह ईश्वर का स्वीकार न करे / जैनदर्शन में ईश्वर का स्वीकार किस उच्च रूप से और कैसे स्पष्ट रूप से है यह पहले सूचित कर ही दिया है। जैनधर्म में ईश्वर-स्वीकार न होता, तो जैनों के इतने गगनचुम्बी महान मनोरम देवालय कहाँ से आते ? -- ईश्वर ' शब्द भी किसी सुष्टिकर्ता चेतन का वाचक नहीं है। सृष्टिकर्तृत्व का भाव भी उस शब्द में से नहीं निकलता / 'ईष्टे असो ईश्वरः' अर्थात सामथ्र्यवान् / यही 'ईश्वर' शब्द का सीधा अर्थ है / जीवमात्र में अनन्त सामथ्य है वह पूर्ण प्रकट हुआ कि वह ईश्वर है। जैनदर्शन में किसी भी आध्यात्मिक अभ्यासी के लिए ईश्वर होने का द्वार खुल्ला बतलाया है / पूर्ण ( आध्यात्मिक ) स्वातन्त्र्य, पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण प्रभुत्व किसी एक विशेष आत्मा ही तक सीमित नहीं है / वह स्थिति आत्मा की-जीवमात्र की साहजिक ( Natural ) स्थिति है। सिर्फ वह कार्मिक आवरणों से आवृत है / वे आवरण हटे कि वह पूर्ण स्वरूप प्रकट ही है / इन आवरणों को हटाना यही एकमात्र, धार्मिक साधन और आध्यात्मिक प्रवृत्ति का उद्देश्य है; यही एकमात्र, मुमुक्षु के प्रयत्न का लक्ष्य-बिंदु है / जो कोई महाभाग इस लक्ष्य की ओर प्रयत्न करे, वह बराबर उसे सिद्ध कर सकता है / इस प्रकार प्रयत्नबल के पूर्ण उत्कर्ष से जो पूर्ण परमात्म-दशा को पहुँचे हैं वे सब ईश्वर हैं / जैन दर्शन के मत में वे सब निराकार परमात्मा ( पूर्ण