________________ धर्मिणी देवी होकर 'सर्वजगत्' के नानात्व में प्रकट होती हुई बतलाई गई है। यही वह पराशक्ति है जो इच्छा, ज्ञान, क्रिया-शक्तियों के रूप में प्रकट होती' है और इसी को महार्थमञ्जरीकार ने 'सूक्ष्मा' तथा इसके भेदों को पशयन्ती, मध्यमा तथा वैखरी कहा है / स्फोटवाद के अनुसार प्रणव या शब्दब्रह्म के दो रूप हैं, एक पर और दूसरा अपर / स्फोट या आत्मारूप में यह परब्रह्मशब्द 'वाच्य' है और उसकी 'वाचक' शक्ति को नाद या प्राकृता' ध्वनि कहते हैं जो अनेक 'वैकृत' ध्वनियों में व्यक्त होकर व्याकृता बनती है, परन्तु यह केवल 'वत्तिभेद' है, स्फोटात्मा स्वयं फिर भी 'अभिन्न रहता है / आत्मा पहले नाद या प्राकृता ध्वनि के रूप में व्यक्त होता है (वा० प० 1, 2, 30-31, 1, 76), फिर वही शक्ति बुद्धि तथा प्राण आदि के सहारे नानारूप धारण कर लेती है (वा०प० 1, 77) ये। विकार वस्तुत: नाद या ध्वनि में ही होते हैं, जो 'वाच्य' रूप आत्मा का 'वाचक' है, परन्तु फिर भी 'वाच्य' ओंकार या प्रात्मा (पर शब्द ब्रह्म प्रणव) में इनको प्रतीति समझी (वा० 50 1, 48-46) जाती है / कोई कोई पागमग्रंथ सच्चिदानन्द निर्विकार ओंकार से शक्ति, शक्ति से नाद और नाद से बिन्दु की उत्पत्ति बतलाते हैं (प्रासोच्छक्तिस्ततो नादो नादाद्विन्दुसमुद्भवः); शक्ति से सर्वप्रथम उत्पन्न होने वाला यह नाद महानाद कहलाता है / अष्टप्रकरणकार के अनुसार उक्त बिन्दु का नाम अनाहत नाद भी है (बिन्दुरेव समाख्यातो व्योमानाहतमित्यपि); इसी अनाहत नाद या परबिन्दु से नाद उत्पन्न होता है (भिद्यमानात् परात् बिन्दोळक्तात्मा रवोऽभवत्); यह अव्याकृत नाद व्याकृत 1. वा०प०,७१-७३ / 2. परः परतरं ब्रह्म ज्ञानानन्दादिलक्षणम् / प्रकर्षेण प्रणवः यस्मात् परं ब्रह्म स्वभावतः / / अपरः प्रणवः साक्षाच्छब्दस्य सुनिर्मलः / प्रकर्षण नवत्वस्य हेतुत्वात् प्रणवः स्मृतः / / (सूतसंहिता-१, 2) 3. स्फोटस्याभिन्नकालस्य ध्वनिकालानुपातिनः ग्रहणोपाधिभेदेन वृत्तिभेदं प्रकाशते / स्वभावभेदो नित्यत्वे ह्रस्वदीर्घप्लुतादिषु प्राकृतस्य ध्वनेः कालः शब्दस्येत्युपचयंतः (वा० 50, 1, 30-31) 4. शब्दस्योर्वमभिव्यक्त वृत्तिभेदे तु वैकृताः। ध्वनयः समुपोहन्ते स्फोटात्मा तैनं भिद्यते / (व० 50, 1, 77)