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________________ ONGS , जीव विचार प्रकरण कृपामृतम्.... वीतराग परमात्मा के दर्शन को समझने का अर्थ है- जीव के स्वरूप को समझ लेना और जीव के स्वरूप को समझ लेने का अर्थ है-परमात्मा के रहस्य को जान लेना। हम तब तक अंधेरे में ही हाथ-पैर मार रहे होते हैं, जब तक जीव के स्वरूप को नहीं समझ लेते। जीव तत्त्व को समझने के बाद ही असल में यात्रा का प्रारंभ होता है। ' तब तक जो भी भ्रमण हुआ, वह यात्रा नहीं था। वह भटकाव था / केवल और केवल निरूद्देश्य भटकाव! भले हम उस भटकाव में भी सपने खोज लें और उस कारण अपने निरर्थक भटकाव को सार्थक यात्रा का नाम दे दें। पर केवल नाम देने से कुछ नहीं होता। भ्रम को पाला जा सकता है। भ्रम को सहलाया जा सकता है। भ्रम को सत्य मान कर जीया जा सकता है पर भ्रम को सत्य बनाया नहीं जा सकता। क्योंकि भ्रम, भ्रम है। सत्य, सत्य है। जीव को अजीव मानना आसान है। इसमें केवल मिथ्यात्व की जरूरत होती है। पर कोई जीव को अजीव बना नहीं सकता। न कोई अजीव को जीव बनाने में . सक्षम है। यह संपूर्ण सृष्टि दो तत्त्वों पर ही निर्भर है- जीव और अजीव / नौ तत्त्व इन्हीं दो तत्त्वों का विस्तार है। मुनि मनितप्रभ ने जीवविचार पर बहुत विस्तृत यह पुस्तक लिखी है। जीव विचार पर कई पुस्तकें उपलब्ध है। पर इस पुस्तक की विशिष्टता कुछ अनूठी है। मेरा यह कथन रहा कि मात्र जीव विचार की गाथाओं तक सीमित नहीं रहना है
SR No.004274
Book TitleJeev Vichar Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManitprabhsagar
PublisherManitprabhsagar
Publication Year2006
Total Pages310
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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