________________ उत्तर- प्रभु वीरस्वामीजी की आत्मा ने समकित के पश्चात् तीसरे भव में मरिची के भव में यह नीच गोत्र कर्म बान्धा था / साधना के बल से बहुत सारा कर्म क्षपित हो गया था / बाकी जो रहा था उस कर्म को भोगने के लिए प्रभु वीर को देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षी में आना पड़ा / प्रश्न- 151. भ. महावीरस्वामीजी का यह नीच गोत्र कब समाप्त हुआ ? उत्तर- 82 दिन पूर्ण होते ही, नीच गोत्र समाप्त हुआ कि इन्द्र महाराजा को विचार आया कि मुझे प्रभु को उच्चकुल में लाना चाहिए | उसी समय इन्द्र महाराजा ने हरिणगमैषी देव को बुलाकर आदेश दिया परमात्मा को देवानन्दा की कुक्षी से लेकर महाराजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षी में स्थापन करो / तब प्रभु महाराजा सिद्धार्थ के घर में पहुँचते ही ऊँच गोत्र कर्म का उदय चालू हुआ | 82 दिन तक देवानन्दा की कुक्षी में रखने वाला कर्म गोत्र कर्म है। प्रश्न- 152. देवानन्दा की कुक्षी में प्रभु का च्यवन हुआ है क्या यह इन्द्र को पता नहीं चला ? उत्तर- ना ! वैसे तो सभी तीर्थंकरों के च्यवन-जन्म-दीक्षा केवलज्ञान-मोक्ष कल्याणक समय 14 राजलोक में प्रकाश हो जाता है / इन्द्र महाराजा का सिंहासन कम्पायमान होता है फिर परमात्मा के कल्याणक का महोत्सव मनाते हैं परन्तु भ. महावीरस्वामीजी का ऐसा निकाचित गोत्र कर्म था कि सदैव चली आ रही परम्परा को भी स्तम्भित कर दिया / प्रभु वीरस्वामी का च्यवन कल्याणक जब हुआ तब इन्द्र महाराजा का सिंहासन कम्पायमान ही न हुआ / अगर आषाढ़ सुदि छठ के दिन इन्द्र का सिंहासन चलायमान हुआ होता तो इन्द्र म. उसी दिन उन को त्रिशला कुक्षी में स्थापन कर देते / परन्तु कर्म सत्ता की करामात विचित्र है / उसने सिंहासन ही कम्पने नहीं दिया 210