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________________ रहता / में सोचता हूँ विक्रमचरित्र आदर्शों को निभवा सकने में / समर्थ एसे तत्त्व का प्रेरणा स्तोत्र रहेगा और हमारा, प्रतिकत्व होगा। .. हिन्दी का भंडार आज बहुत समृद्ध और एक प्रौढावस्था को प्राप्त हो चला है। विश्व साहित्य के समक्ष हिन्दी साहित्य भी अब अपना एक विशिष्ठ स्थान रखने लगा है-इस प्रकार की मान्यता पाश्चात्य विद्वानो में चल पड़ी है यह हमारे गौरवकी बान है। अनुवादक के कथनानुसार यह पुस्तक हिन्दो में उनका प्रथम प्रयास है भाषा की दृष्टि से मेरे अपने विचार से यह पुस्तक आज के हिन्दी साहित्य का प्रतिनिधित्व नहीं हो सकती / हमारी भारतीय परम्परा कंही भी कैसी भी परिस्थिति में कुछ न कुछ गुण-सार ग्रहण करनेकी प्रणाली को विशेष महत्व देती रही है उस दृष्टि से भी यदि हम इस पुस्तक से भाषा न सही श्रेष्ठ चरित्र के तत्त्वो को ही जीवन में उतार सकने की ओर अग्रेसर भी हो सके-में समझता हूँ हम बहुत काफी कर दिखायेंगे और कौन जाने इन तत्त्वों के सहारे ही हमहीमें से कोई विक्रम पेदा हो और विक्रम कर-दिखा गिरे हुए को ऊपर उठा सकने में सफल हो सके ! यदि किसी में प्रतिभा है तो उस प्रतिभा का प्रकाशन उसके द्वारा होना आवश्यक है यदि वह ऐसा नहीं करता तो वह एक प्रकार की आत्महत्या है-प्रतिभा इसलिए है कि वह अभिव्यक्ति पाये न कि कुंठिन हो। इसलिए अनुवादक को हमारी ओर से प्रोत्साहन मिलना ही चाहिये जिससे आगे चल कर वह हमें ऐसे ही कुंछ और तत्त्व, चरित्र, दे सके जो भाषा की दृष्टि से भी ऊँचे होंगे-- होने ही चाहिये। . इति . . 16 अप्रैल 1952 ___... शशीकान्त बनोरिया अमदावाद ... . . " विशारद" . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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