________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 347 गया / उस भारण्ड ने कहा कि 'हे वत्स! तुम यहाँ अबतक रहे हो अत एव मेरे अति प्रिय हो / तुम मेरा स्मरण करना / सज्जन वही है जो अति दूर रहने वाले के स्नेह का भी निर्वाह करें। कुमार ने उत्तर दिया कि 'हे तात ! मैं तुम्हारा स्मरण सतत करता रहूँगा। आपने तो मुझ निराधार को आश्रय दे कर मेरा बहुत बड़ा उपकार किया है अर्थात् आप मेरे जीवनदाता है।' भारण्ड के मल की गुटिका लेकर कनकपुर जाना फिर वृद्ध भारण्ड के कहने से उसके एक पुत्रने राजकुमार को अपनी पंख पर बिठा कर कनकपुर पहुँचाया और स्वयं कुमार से स्नेह पूर्वक विदाय ले कर अपने आहार की खोजमें चला। विक्रमचरित्र भी वैद्य का वेष धारण कर के शहेर में घूमने गया। शहेर देखते देखते वह एक बड़े व्यापारी की दुकान पर जा पहुँचा। दुकान के मालिक 'श्रीद' नामक श्रेष्ठी का मुख उदास देख कर कुमारने पूछा कि 'हे श्रेष्ठिवर्य ! आपका मुख इतना उदास क्यों दिखाई दे रहा है ?" श्रेष्ठीने उत्तर दिया कि 'हे भाइ ! मैं बड़े कष्ट में हूँ। मेरे एक मदन नामक पुत्र है। उसका शरीर बड़ा सुन्दर था परन्तु दैवयोग मे वह इस समय रोगग्रस्त हो कर कुरूप हो गया है / उसका कइ उपचार किया परन्तु वह अभी तक निरोगी नहीं हुआ। तब कुमारने कहा-" हे श्रेष्ठिवर्य ! आप अपने मन में कुछ भी दुःख न लायें। मैं आपके पुत्रको औषध प्रयोग द्वारा अत्यन्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org