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________________ 294 विक्रम चरित्र कम हैं किन्तु कार्य बहुत करते हैं / इसी प्रकार वह राजकन्या अपने मन में अनेक प्रकार की बातें विचारती हुई जा रही थी। जब सूर्योदय हुआ तब उस कृषक (किसान) का मुख देखकर वह राजपुत्री शुभमती एकाएक मूछित होकर पृथ्वी पर गिर गई। सिंह किसान के द्वारा शीतोपचार करने से स्वस्थ होने पर वह राजकुमारी अपने मन में विचार करने लगी कि वह दिव्यरूप धारी राजकुमार कहाँ चलामया और यह अत्यन्त कुत्सित रूप वाला मनुष्य कहाँ से आ गया ? अथवा इस समय इसको मेरे दुर्भाग्य ने ही लाया है / ', . थोडे समय बाद वह कृषक सिंह अपना मौन छोड़कर बोला कि 'हे भामिनि ! तुम हर्ष के स्थान पर इस प्रकार शोक क्यों करती हो। मैं बहुत से किसानों से युक्त विद्यापुर नामक गाँव में रहता हूँ, जहाँ पर लोग अपनी इच्छा से द्यूतक्रीडा आदि करते हैं। वहाँ मैं भी द्यूतकीडा में तत्पर रहता हूँ। मेरा नाम सिंह है / मैं सात प्रकार के व्यसन करने वाले लोगों के साथ प्रसन्नता से रहता हूँ। मैंने इस समय पाँच खेतों में बीज बोये हैं। मेरे घर में चार बड़े बड़े वृषभ हैं। एक बहुत अच्छा रथ है / दो गायें हैं, एक गर्दभी है, जो घर में जल लाती है / छिद्र से रहित अत्यन्त निर्वात तृण काष्ठ का मेरा घर हैं। पहिले की एक गृहिणी है / अब दूसरी गृहिणी तुम हुई / तुम्हारी जैसी नवोढा पत्नी को रख कर मैं पुरानी स्त्री को घर से निकाल दूंगा और तुम्हें गृह की स्वामिनी बना कर सुख से रहूँगा क्यों कि इस प्रकार का संयोग भाग्य से ही मनुष्य पाता है / कहा है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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