________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित करने लगे। श्री सिद्धसेनसूरीश्वर जी महाराज ने विहार करते हुए कई भव्य जनों को जिन कथित धर्म का ज्ञान कराया। और भव्य प्राणियों के मिथ्यात्व रूप विष को सर्वज्ञ कथित आगम रूपी अमृत रस से नष्ट किया। श्री सिद्धसेनसूरीश्वरजी महाराज विहार करते हुए अवन्तीपुर के बाहर उद्यान में आकर ठहरे। क्रीडा करने के लिये जाते हुए राजा विक्रमादित्य ने उन्हें वहाँ देख कर परीक्षा करने के लिये हाथी के उपर बैठे बैठे ही मन ही मन सूरीजी को भाव नमस्कार किया। तब श्री सिद्धसेनसूरीश्वरजी महाराज ने हाथ उठा कर उस को धर्म लाभ रूप आशीर्वाद दिया। राजा विक्रमादित्य ने कहा कि 'आपने मुझे धर्म लाभ क्यों दिया ? मैं ने तो आप को वन्दना की नहीं है / क्या समर्थ-शक्तिशालि व्यक्ति ऐसे ही धर्म लाभ प्राप्त कर सकता है / राजा की बात सुन कर श्री सिद्धसेनसूरीश्वर जी ने उत्तर दिया कि जो वन्दना करता है, उसी को धर्मलाभ दिया जाता है / तुमने काया से वन्दना नहीं की है, परन्तु मन से तो भाव वन्दना की है। दान व जीर्णोद्धार श्री सिद्धसेनसूरीश्वरजी की बात सुन कर राजा विक्रमादित्य चकित होकर हाथी से नीचे उतरा तथा प्रसन्न हो कर श्री सूरीश्वरजी को वन्दना की और कोटि सुवर्ण सूरीजी को देने के लिये मन्त्री को फरमान किया, तुरंत ही मन्त्री ने कोटी सुवर्ण द्रव्य रिजी के पवित्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org