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________________ विक्रम चरित्र के लिये अपने सेवकों को भेजा। वे उस वेश्या के घर जाकर बोले कि 'राजा के समक्ष चलो और चोर को समर्पित करो, सेवकों के ऐसा कहने पर वेश्याने घर के अंदर जाकर सोये हुए उस चोर को जगाया और कहा कि 'हे चोर शिरोमणि ! उठो, राजा के सेवक हमें बुलाने के लिये आये हैं। तब चोर ने कहा कि 'इस समय मुझे सुख निद्रा आ रही है अतः एक प्रहर ठहर जाओ। ___ यह सुन कर वेश्या चिल्लाई और बोली कि 'तुमने पहले तो मुझसे पटह का स्पर्श करा लिया और इस समय निश्चिन्तता से निद्रा का सुख लेते हो / क्या तुम को राजा का कुछ भी डर नहीं है ? इस प्रकार वेश्या के बार बार कहने पर वह उठा और नहा धोकर मध्याह के समय तक तैयार हुआ फिर वेश्या से कहा कि 'अब तुम मेरे साथ चलो।। वेश्या बोली कि 'तुम स्वयं ही जाओ / मुझे क्यों संकट में डालते हो / अब समझ में आया कि इस प्रकार के मनुष्य अपने आश्रयदाता को ही विपत्ति में डालते हैं / वृश्चिक, सर्प तथा दुर्जन को ब्रह्मा ने क्रमशः पूछ में, मुख में तथा हृदय में विष दे रखा है / इसलिये दुर्जन चाहे कितना भी बड़ा विद्वान् हो उसका परित्याग ही करना चाहिये / क्या मणि से अलंकृत सर्प भयंकर नहीं होता ? जैसे गजराज शान्त होकर छाया के लिये जिस वृक्ष का आश्रय ग्रहण करता है उसी को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार दुर्जन लोग भी अपने आश्रयदाता का ही नाश करते हैं। वेश्या को भाश्वासन देते हुए चोर ने कहा कि 'तुम मेरे साथ चले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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