________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित में सन्दूक में जितना धन था, वह सब लेकर तथा कावड में भरकर वहाँ से चुपचाप निकल पड़ा और दिया / वह वेश्या के घर पहुंचा और पूर्व के संकेत के अनुसार उसके दरवाजा खोलने पर घर में जाकर वेश्या को सब धन दिखलाने लगा / वेश्याने वह सब धन देख कर पूछा कि -- यह किसका है ? ' तब देवकुमार वेश्या को कहने लगा कि 'यह सब धन कोटवाल का है। उसके घर से ही मैं चोरी करके लाया हूँ।' यह बात सुनकर वेश्या अपने मनमें सोचने लगी कि यह देखते देखते चोरी करने वाला चोर ठीक है / यह तो कोटवाल के घर से भी इस समय इतना धन चुरा कर ले आया है। तो दूसरे के घर से द्रव्य का अपहरण करना इस के लिए क्या कठीन है ? / जब वह यह सोच ही रही थी, तब उस चोर ने वेश्या से. कहा कि ' यह जितना धन है, वह सब तुम ले लो / ' तब वेश्या फिर अपने मन में विचारने लगी कि यह अपूर्व प्रकार का चोर है, क्यों कि इस में दान आदि देने का सद्गुण भी है। इस प्रकार का दानी चोर तो कहीं देखा ही नहीं गया / __इधर कोटवाल प्रातःकाल राजा के समीप पहुँचा और बोला कि 'मैं तीन दिन से भूख और प्यास से व्याकुल हूँ फीर भी नगर में सतत भ्रमण कर के चोर की तलाश करता रहा पर उसे नहीं पा सका। इसलिये मेरी प्रतिज्ञा के अनुसार चोर के योग्य दण्ड मुझे देना चाहिए।' इस प्रकार कोटवाल का भक्ति गर्भित वचन सुनकर राजा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org