________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित सर्प के मुख से कन्या का छुडाना ऐसा सुनकर राजा विक्रमादित्यने कूप के बीच में जाकर तथा निर्भय होकर अतीव दिव्य रूपवाली तथा मन को हरण करने वाली उस कन्या को सर्प के मुख से छुड़ालिया। इसके बाद वह सर्प दिव्य रूप धारण कर के बोलाः-- "वैताढ्य पर्वत के शिखर पर 'श्रीपुर' नाम का एक नगर है / मैं वहीं निवास करता था। मैं 'धीर' नामक विद्याधर हूँ। यह दिव्य रूप वाली 'कलावती' नाम की मेरी कन्या है / यह कन्या सब विद्याओं में पारंगत है। विवाह के योग्य इस को देख कर मैंने इसके सदृश वर को खोजा परन्तु बहुत उद्योग करने पर भी इसके योग्य वर नहीं मिला। हे राजन् ! तुम को मैं रूप, विद्या, बल, बुद्धि से श्रेष्ट तथा सब गुणों से युक्त देख कर यह कन्या देने के लिये यहाँ आया हूँ। मैंने तुम्हारी परीक्षा कर ली है। हे मनुष्यों में श्रेष्ठ राजन् विक्रमादित्य ! शीघ्र ही इस कन्या से विवाह करलो।" कलावती से लग्न विद्याधर के ऐसा कहने पर राजा विक्रमादित्य ने उस कन्या से विवाह कर लिया / विद्याधर राज की आज्ञा लेकर अपने स्थान पर चला गया और महाराजा विक्रमादित्य भी उस कन्या को लेकर अपने नगर आये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org