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________________ 8 ५१६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ उनके दुष्परिणामों के बारे में नहीं सोचता है कि मैं इन पापकृत्यों को कर रहा हूँ, इनका कितना बुरा नतीजा आएगा !' यह ठीक ही कहा है-“पुरुष अपने भाई-बहन, पत्नी-पुत्र आदि परिवार, स्नेहीजन या अपने सम्प्रदाय, जाति, प्रान्त, राष्ट्र एवं समाज के लोगों के लिए तथा अपने शरीर के निमित्त से (मोहवश) जितने पापकर्म करता है, उनके उदय में आने पर उनके फल (सजा) भोगने का समय आता है, तब बेचारा अकेला ही नरक, तिर्यंच आदि कुगतियों में उन सब पापों का, महाभयंकर दुःखरूप फल भोगता है।" इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने कहा-“जो मनुष्य पापकर्मों, यानी छलकपट, झूठ-फरेब, धोखाधड़ी, चोरी-डकैती, तस्कारी, बेईमानी, ठगी, बलात्कार, व्यभिचार, मिलावट, गबन, भ्रष्टाचार या ऐसे ही अकरणीय पापकृत्यों द्वारा धन को अमृत समझकर अथवा कुबुद्धि से प्राप्त करते हैं, कमाते हैं, उसमें आसक्ति करके बैठ जाते हैं, उसका संग्रह करते हैं, वे राग, द्वेष, मोह; तृष्णादि पाशबन्धनों में फँसते हैं। अन्त में, धन तो यहीं धरा रह जाता है और उन्हें यहाँ से कूच कर अन्यत्र जाना पड़ता है। ऐसे मनुष्य कुटुम्ब यां समाज आदि के लिए अनेक जीवों से वैर बाँधकर अन्त में नरकगति प्राप्त करते हैं।” (इतना ही नहीं) “संसारी मनुष्य दूसरों के यानी अपने परिवार, सम्प्रदाय, जाति, देश आदि के लोगों के सुख के लिए बुरे से बुरे पापकर्म कर डालता है, पर जब उनके दुष्फल भोगने का समय आता है, तब अकेले को ही सब दुःख भोगने पड़ते हैं। सुख बँटाने के लिए तो सभी बन्धु-बान्धव हैं, पर कोई भी बन्धु-बान्धव या अपने माने हुए स्वजन उसका दुःख बँटाने के लिए नहीं आते।"२ अपने और अपनों के लिए पापकर्म करके सुख देने वाले लोगों का यह सोचना भी अत्यन्त भ्रान्तिजनक है, मिथ्या है कि समय आने पर वे अपने माने हुए स्वजन या बन्धुजन हमें सुख देंगे, उनके सुख के लिए हम कुछ नहीं करेंगे तो वे हमें त्रास या दुःख १. (क) यदुपात्तमन्यजन्मनि शुभमशुभं वा स्वकर्म-परिणत्या। तच्छक्यमन्यथा नैव, कर्तुं देवासुरैरपि॥ (ख) अत्युग्र-पुण्य-पापानामिहैव फलमाप्यते। त्रिभिर्वर्षस्त्रिभिर्मासैस्त्रिभिः पस्त्रिभिर्दिनैः।। २. (क) पुरुषः कुरुते पापं, बन्धुनिमित्तं वपुर्निमित्तं वा। वेदयते तत्सर्वं नरकादौ पुनरसावेकः॥ (ख) जे पावकम्मेहिं धणं मणुस्सा, समाययंति अमयं गहाय। पहाय ते पास-पयट्टिए नरे, वेराणुबद्धा नरयं उति।।२।। संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्म। कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले न बंधवा बंधवयं उवेंति।।४॥ -उत्तराध्ययन, अ.४,गा.२,'
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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