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________________ * अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ॐ ४९७ 8 अपने जीवनकाल में मनोऽनुकूल सैकड़ों पदार्थों का संचय किया, उनके प्रति आसक्ति (रति) भी की और उनके बिगड़ने, नष्ट होने या चुराये जाने पर अरतिजन्य दुःख भी भोगा। इसी प्रकार कई लोगों से या अपने कुटुम्बीजनों से प्रीति, रागभाव एवं रति की तथा अपने पुत्र, पुत्री, पत्नी या उन्हीं प्रीतिभाजन लोगों के प्रतिकूल हो जाने, उनके खिलाफ हो जाने या मतभेद-मनोमालिन्यादि हो जाने अथवा स्वार्थभंग हो जाने पर अप्रीति, अरति एवं द्वेषभाव रखा। यों अपने जीवनकाल में रति-अरति से अनेक पापकर्मों का बन्ध किया और मृत्यु के समय जब अपनी संचित धन-सम्पत्ति, कौटुम्बिकजनों, स्नेहीजनों एवं मन में ममकारअहंकार से संलग्न सैकड़ों रतिजनक पदार्थों को छोड़कर जाना पड़ता है, तब अरतिजन्य काल्पनिक दुःख का पहाड़ टूट पड़ता है। साथ में कोई भी रतिजन्य पदार्थ नहीं आता तथा जिनके प्रति अरति हुई थी, उसका भी शमन नहीं हुआ। उस समय मृत्यु के प्रति भी अरति होती है, क्योंकि अनिच्छा होते हुए भी सबको छोड़कर जाना पड़ता है। तब साथ में क्या जाता है? रति-अरति आदि पापस्थानों से बद्ध पापकर्मों या कुछ पुण्यकर्मों से निर्मित कार्मणशरीर ही तो जाता है। इससे स्पष्ट है रति-अरति पापस्थान अपने साथ हिंसा से लेकर परिग्रह तक तथा क्रोध से लेकर मिथ्यात्व तक अनेक पापकर्मों का दल अपने साथ बटोर लेता है। एक बार रतिभाव तीव्र बना कि फिर सुख की लालसा सैकड़ों पाप करा देती है। चोरी, व्यभिचार, डाका, पर-स्त्रीगमन आदि वैषयिक सुखों में उसकी रति-अरति बढ़ने लगती है। .. रति-अरति की परिवर्तनशीलता में न बहकर व्यक्ति दृष्टि बदले जैसे मन में पड़ी हुई काल्पनिक वैषयिक सुख-प्राप्ति की लालसा पाप कराती है, वैसे ही मन में पड़ी हुई दुःखनिवृत्ति की लालसा भी पापकर्म कराती है। सुखप्राप्ति की रति से अथवा दुःखनिवृत्ति की रति से मनुष्य येन-केन-प्रकारेण धन, सुखभोग के साधन, जड़-वस्तुओं की प्राप्ति, संग्रह और सुरक्षा में रात-दिन आत-रौद्रध्यान के चक्कर में फंसा रहता है। जबकि सुख-दुःख न तो वस्तुओं में है, न ही जड़-वस्तुओं के संग्रह में है। जो व्यक्ति या वस्तु आज सुखदायी लगती है, वही कालान्तर में दुःखदायी बन जाती है। परन्तु मोहमूढ़ मानव रति-अरति नामक पापस्थान को अपनाकर पापकर्मों का संचय करता रहता है। मनोगतवृत्तियों के परिवर्तन के साथ-साथ रति-अरति में भी परिवर्तन होता रहता है। एक भिखारी के पाँच लाख की लॉटरी खुली। वह अत्यन्त खुश हुआ। उसे उसमें रति हुई। ३-४ साल में उसने पाँच लाख और कमा लिये। अब दस लाख हो गए। रतिभाव की मात्रा में वृद्धि हुई। किन्तु एकाएक भाग्य ने पलटा खाया। व्यापार में पाँच लाख का
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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