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________________ * ४९२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * आलोचनादिपूर्वक आत्म-निन्दा और क्षमायाचना करे तो उसके अनेक पूर्वकृत पापकर्मों का क्षय (निर्जरा) हो सकता है, मन-वचन-काया को पर-निन्दा से सहसा रोकने से संवर का लाभ भी प्राप्त कर सकता है। अतः पर-निन्दा के महापाप से । सर्वथा बचकर आत्म-निन्दा का अभ्यास करना ही हितावह है। प्रसन्नचन्द राजर्षि पहले पर-परिवाद के पाप में पड़कर मन ही मन घोर हिंसा और युद्ध के स्तर पर उतर आए थे, नरक-प्राप्ति के अशुभ आनव और बन्ध के जाल में फँस रहे थे, किन्तु सहसा वे सँभल गये, पर-निन्दा से हुए घृणित कार्य से अपने को एकदम रोककर आत्म-निन्दा (पश्चात्ताप) पर तीव्र गति से दौड़ने लगे, फलतः क्रमशः पहले चार घातिकर्मों का क्षय होने से केवलज्ञान प्राप्त हो गया। तत्पश्चात् शेष चार अघातिकर्मों का भी क्षय करके वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा हो गए। उत्तराध्ययनसूत्र इस तथ्य का साक्षी है। आत्म-निन्दा से जीव को क्या गुण प्राप्त होता है ? इसके उत्तर में भगवान महावीर ने कहा-आत्म-निन्दा से पश्चात्ताप उत्पन्न होता है। पश्चात्ताप वैराग्ययुक्त होकर जीव करणगुण (क्षपक) श्रेणी को प्राप्त करता है। क्षपक श्रेणी प्राप्त अनगार मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय कर देता है। इस प्रकार आत्म-निन्दा का विधिवत् अभ्यास हो तो व्यक्ति पापकर्मबन्धक पर-परिवाद नामक पापस्थान से बच सकता है। साध्वी मृगावती, चन्दनबाला आदि ने पर-निन्स से सर्वथा विरत होकर आत्म-निन्दा से ही केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर लिया था। सोलहवाँ पापस्थान : रति-अरति : एक भयंकर पापचक्र - रति-अरति नामक पापस्थान भी आत्म-स्वरूपरमण से विमुख होकर पर-भावों में रमण करने से होता है। संक्षेप में कहें तो आत्मा के स्वाधीन अव्याबाध सुख (आनन्द) का तत्त्वचिन्तन-मनन और उस पर श्रद्धान व रमण करना छोड़कर या भूलकर पराधीन पर-वस्तु में सुख-दुःख का चिन्तन-मनन, श्रद्धान व रमण करना ही रति-अरति पापकर्मबन्ध का कारण है। 'धवला' में कहा गया-“रमण का नाम रति है। जिन (मोहनीयादि) कर्मस्कन्धों के उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों में राग उत्पन्न होता है, वह रति है और जिन कर्मस्कन्धों के उदय से द्रव्यादि में अरुचि उत्पन्न होती है, वहाँ अरति है। वास्तव में, आत्म-भावों में या संयम में अरति और अनात्म-भावों-पर-भावों में या असंयम में रति होती है। रति-अरति का सामान्य शब्दार्थ इस प्रकार है-रति का अर्थ है-सुख, आनन्द या प्रीति होना; अरति का अर्थ है-अप्रीति, दुःख, अरुचि या ग्लानि। वस्तुतः मन के अनुकूल १. निंदणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ? निंदणयाए णं पच्छाणुतावं जणयइ। पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे करण-गुण-सेढिं पडिवज्जइ। करणगुण-सेढी-पडिवन्ने य णं अणगारे मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ॥ -उत्तराध्ययन, अ. २९, सू. ६
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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