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________________ ॐ अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ॐ ४८९ * अर्थात् नीचगोत्र कर्म बाँधने वाला जीव चाण्डाल, दरिद्र, मौष्टिक (जल्लाद), व्याध (बहेलिया), मच्छीमार एवं हल्के नीच कर्म करने वाला गुलाम बनता है और जिंदगीभर अज्ञान एवं मूढ़तावश वही काम प्रायः करता रहता है।" यदि जमाली की तरह तप-संयमादि के कारण कदाचित वैमानिक देवों में उत्पन्न हो जाए तो भी वह वहाँ तीर्थंकर अर्हत् परमात्मा की निन्दा के कारण हल्की कक्षा का किल्विषिक देव बनता है, वहाँ भी हीनता का शिकार होता है। कहा भी है “जिनवरने निंदतां नीचगोत्र बंधाय। नीचकुलमा अवतरी कर्म-सहित ते थाय॥" साथ ही ऐसा देव-गुरु-धर्म का निन्दक असातावेदनीय एवं नरक-तिर्यञ्चायुष्य कर्म का भी बन्ध कर लेता है। जो प्रत्यनीक = विरोधी, द्वेषी बनकर गुरु की निन्दा करता है, वह तो कुलबालूक की तरह ब्रह्मचर्य; अहिंसादि महाव्रतों से भ्रष्ट होकर स्वयं घोर नरकादि में गिरता है। अभीचिकुमार ने श्रावकव्रत ग्रहण किये, वह पौषधादि धर्मक्रिया भी करता था, किन्तु अपने पिता उदायी राजर्षि (मुनि) की अन्त तक निन्दा करता रहा, द्वेषवश उनकी हत्या भी करवाई। फलतः वह विराधक होकर मरा और नीच किल्विषिक देव बना। : पर-निन्दा के पापकर्म से छूटने का एक उपाय : गुणानुराग ____ अतः पर-निन्दा की इस अधमवृत्ति से छूटने का संवराराधक के लिए सबसे अच्छा उपाय यही है कि वह गुणानुरागी बने। अपने या दूसरे धर्म, सम्प्रदाय, जाति, राष्ट्र या प्रान्त के व्यक्ति को आत्मौपम्यभाव की दृष्टि से देखे। उसकी शुद्ध आत्मा पर ही दृष्टि डाले, उसके ऊपरी आवरणों या शुद्ध आत्म-भाव को आवृत करने वाले दुर्गुणों की ओर देखे ही नहीं, तभी गुणानुराग आ सकता है। संत-समागम, सत्संग और शास्त्रों के पठन एवं श्रवण से, तत्त्वज्ञान एवं शुद्ध परिणति का अभ्यास हो जाने से व्यक्ति पर-निन्दा के पाप से छूट सकता है। सम्यग्दृष्टि बनकर दूसरे के छोटे-से गुण को भी विशाल दृष्टि से = उदार दृष्टि से देखने से पर-दोषदर्शन से दृष्टि हटकर पर-गुणदर्शन में लग जाएगी। यादवकुलपति श्रीकृष्ण कहीं राजकार्यवश अपने सेवकों के साथ जा रहे थे। रास्ते में एक मरी हुई कुतिया पड़ी थी। उसकी लाश देखकर कई सेवक नाक-भौं सिकोड़ रहे थे। परन्तु श्रीकृष्ण जी ने गुणानुरागी • दृष्टि से प्रेरित होकर कहा-देखो ! इस कुतिया के दाँत मोती-से कितने चमक रहे १. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण, पृ. ९९९
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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