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________________ ॐ अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ॐ ४८१ * का या जीभ का? वास्तव में, अभ्याख्यान में देखी हुई बात से विपरीत या भिन्न बातें जीभ से होती हैं। अभ्याख्यान का लक्षण 'धवला' में इस प्रकार किया गया है-क्रोध, मान, माया और लोभ (स्वार्थादि) के कारण दूसरों में अविद्यमान दोषों को प्रगट करना अभ्याख्यान है।' महासती सीता पर लगे अभ्याख्यान से कितनी हानि ? - धोबी और धोबन के परस्पर कलह के प्रसंग पर धोबी के द्वारा सीता पर लगाये हुए दोषारोपणरूप अभ्याख्यान के कारण से प्रेरित रामचन्द्र जी ने भी सीता को राजमहल से निकालकर वनवास दिया। एक पवित्र सन्नारी महासती सीता पर हुए अभ्याख्यान के कारण उसे कितना सहना पड़ा। ईर्ष्या, द्वेष, पूर्वाग्रह, तेजोद्वेष आदि कारणों से व्यक्ति अभ्याख्यान नामक पापस्थान का सेवन करते हैं। जो किसी का उत्कर्ष, उन्नति, तरक्की नहीं देख सकते, वे लोग ही अभ्याख्यान नामक घोर पापकर्म का आश्रय लेते हैं। अभ्याख्यानी का लक्ष्य ही यह रहता है कि दूसरों को कैसे नीचा दिखाऊँ ? बदनाम करूँ? उनके चारित्र पर कलंक लगाऊँ ?२. . अभ्याख्यान पाप से बचने के लिए सुझाव ___अभ्याख्यान नामक पाप से बचने के लिए व्यक्ति को सुनी-सुनाई या एकपक्षीय बातों पर से सहसा निर्णय नहीं करना चाहिए। कभी-कभी आँखों से देखी हुई बात भी सत्य नहीं होती। आँखें भी धोखा दे जाती हैं। आँखों से देखने में भी भ्रम हो सकता है, इसलिए धैर्य, तर्क, युक्ति तथा प्रमाणों से निर्णय करने से मनुष्य अभ्याख्यान पाप से बच सकता है। नीतिकार कहते हैं “काने सुनी न मानिये, नजरे दीठी सो सच्च। नजरे दीठी न मानिये, निर्णय करी सो सच्च॥" . भावार्थ स्पष्ट हैं। अतः अभ्याख्यान भी आत्म-दर्शन को छोड़कर पर-दर्शन से होता है। वह भी घोर पापकर्मबन्ध का कारण है। - अभ्याख्यान के पाप से बचने का सुपरिणाम - बंकचूल की बहन पुष्पचूला एक बार रात्रि में पुरुषवेश पहन नाटक देखने गई थी। वहाँ से आकर थकी-थकाई वह पुरुषवेश में ही अपनी भाभी के साथ सो गई। अपनी पत्नी के साथ एक जवान पुरुष को सोये देखकर बंकचूल चौंका और अपनी पत्नी तथा उक्त पुरुषवेशी को मारने के लिए तलवार निकाली। परन्तु सहसा १. क्रोध-मान-माया-लोभादिभिः परेस्वविद्यमान-दोषोद्भावनमभ्याख्यानम्। -धवला १२/४/२८५ २. 'पाप की सजा भारी, भा. २' से भावांश ग्रहण, पृ. ८७९
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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