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________________ ॐ अविरति से पतन, विरति से उत्थान-२ ® ४७९ 8 मिश्रित रूप है। क्रोधादि तथा रागादि पापस्थान तो अपने-अपने स्थान पर अकेले और स्वतंत्र हैं, लेकिन कलह इन सभी का एक सामूहिक रूप है। बिना कषायों आदि के कलह सम्भव ही नहीं है। कलह में ये सभी कषाय एक या दूसरे रूप में न्यूनाधिक रूप से निमित्त बनते हैं। यद्यपि कलह में क्रोध और मान (अहंकार) की प्रबलता होती है। कलह से घोर पापकर्मों का बन्ध और उसका कटुफल ____ कलह से ज्ञानावरणीय, मोहनीय, असातावेदनीय, नीच गोत्र आदि पापकर्मों का बन्ध शीघ्र ही हो जाता है। एक परिवार के बच्चे स्कूल में शरारत करने पर शिक्षकों द्वारा पीटे गए। वे रोते-रोते घर आए तो उनकी माता ने बच्चों पर मोहवश शिक्षकों पर कुपित होकर उन्हें भला-बुरा कहा। बच्चों को स्कूल में मारा, इसलिए उन्हें स्कूल भेजना भी बन्द कर दिया। उनकी पुस्तकें आदि आग में डालकर जला दीं। शाम को पति ने आकर पूछा तो पत्नी ने बच्चों को स्कूल न भेजने की रट लगाई। पति ने कहा-“ऐसे तो ये बच्चे मूर्ख रहेंगे, इनकी शादी रुक जाएगी, ये व्यापारादि कैसे करेंगे?" इस पर वह और तन गई, अपने आग्रह पर डटी रही। जब उन लड़कों को कोई भी अपनी कन्या देने को तैयार न हुआ तो पति ने कलहकारिणी. पत्नी से कहा-“तेरे पाप के कारण ये पढ़ न सके, इस कारण ही ऐसा हुआ।" पत्नी कौन-सी कम थी। उसने भी सुनाया-"पाप तेरा है, तुमने पढ़ाया नहीं। पापी मैं नहीं तू है, तेरा बाप है।" पति को भी उस मुँहफट पर बहुत गुस्सा आया। उसने भी एक पत्थर उठाकर पत्नी के सिर पर दे मारा। सिर फूट गया और रक्त बहने के कारण वहीं उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार कलह से एक ओर ज्ञान की आशातना, दूसरी ओर क्रोध, गाली-गलौज, दोषारोपण के कारण पापकर्म बाँधकर पति-पत्नी दोनों मरकर वरदत्त और गुणमंजरी के रूप में मूक और वधिर बने। कलह दूसरों के साथ रागादियुक्त सम्बन्ध जोड़ने से होता है कलह प्रायः सम्बन्धों में रिश्तेदारों में होता है, अकेले में अपने में नहीं होता। कलह में प्रायः असभ्य, अविवेक, दोषारोपण, गाली आदि की गंदी भाषा का ही उपयोग होता है। विनय, विवेक, मर्यादा, लज्जा आदि सबको ताक में रख दिया जाता है। भाषा में व्यंग, कटाक्ष, दोषारोपण, आवेश, अहंकार आदि होते हैं तो तुरंत टकराहट, संघर्ष और कलह शुरू हो जाता है। कभी-कभी मामूली कलह युद्ध का रूप ले लेता है। वह कभी भाषा के नाम पर, कभी जाति, कौम, धर्म, सम्प्रदाय और कभी प्रान्त या राष्ट्र के नाम पर संग्राम छिड़ जाता है। गुजराती में कहावत
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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