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* अविरति से पतन, विरति से उत्थान-१ ॐ ४७१ *
साधुवर्ग के पास धर्मोपकरण होने पर भी परिग्रह नहीं प्रश्न होता है-परिग्रह के सर्वथा त्यागी निर्ग्रन्थ मुनियों के पास भी रजोहरण, वस्त्र, पात्र, कम्बल या मोरपिच्छी, कमण्डलु, शरीर आदि तथा जिस मकान में रहता है, वह मकान (स्थानक या उपाश्रय), पट्टा, चौकी अथवा शिष्य-शिष्या, भक्त-भक्ता (श्रावक-श्राविका), शास्त्र, पुस्तक आदि पदार्थ रहते हैं या वे रखते हैं, तो क्या उन्हें भी परिग्रही माना जाएगा?
इसका समाधान तत्त्वार्थसूत्र एवं दशवैकालिक आदि आगमों में स्पष्टतः किया गया है कि वस्तु परिग्रह नहीं है, वस्तु सजीव हो या निर्जीव उसके प्रति मूर्छा, ममता, आसक्ति ही परिग्रह है। ‘दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया है-“श्रमण-निर्ग्रन्थ जो वस्त्र, पात्र या कम्बल, पादपोंछन आदि धर्मोपकरण रखते हैं, वे उन्हें संयम पालनार्थ अथवा लज्जानिवारणार्थ धारण करते हैं, पहनते हैं या रखते हैं, उन्हें ज्ञातपुत्र सर्वजीवत्राता भगवान महावीर ने परिग्रह नहीं कहा ! उन महर्षि ने मूर्छा को परिग्रह कहा है; ऐसा आचार्यों ने कहा है।" यों तो 'भगवतीसूत्र' में शरीर, उपधि एवं कर्म (कर्मबन्धक कारणों) को (इनके प्रति ममता-मूर्छा हो तो) परिग्रह कहा गया है। किन्तु तत्वज्ञ मुनिवर सचित्त-अचित्त पदार्थों के प्रति ही नहीं, अपने शरीर के प्रति भी ममत्व नहीं रखते हैं।
वस्तु को मूर्छा-ममतापूर्वक रखने या संग्रह करने की वांछा - सोना, चाँदी, सिक्के, नोट आदि घरों में, तिजोरी में पड़े रहते हैं, बाजार में, दुकानों में विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ सजी हुई रहती हैं, परन्तु उन वस्तुओं पर साधुवर्ग का तो क्या, गृहस्थ श्रावकवर्ग का भी परकीय वस्तु पर ममत्व नहीं होता, परन्तु जब उसमें से कोई भी वस्तु अपने कब्जे में करके या स्वयं ममत्वपूर्वक ग्रहण करके रखी जाती है या वस्तु उपस्थित न हो तो भी उसके प्रति. रखने-संग्रह करने की वांछा की जाती है या शरीरादि, शिष्यादि या वस्त्रादि उपकरणों के प्रति ममत्व रखा जाता है, वहाँ वह परिग्रह हो जाती है। १.. (क) जं पि वत्थं वा पायं वा कंबलं पाय पुच्छणं।
तं पि संजमलज्जट्ठा धारंति परिहरंति य॥२०॥ न सो परिग्गहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा। मूच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा॥२१॥ सव्वत्थु वहिणा बुद्धा संरक्षण-परिग्गहे।
अवि अप्पणो वि देहे नायरंति ममाइयं ॥२२॥ -दशवैकालिक, अ. ६, गा. २०-२२ (ख) मूर्छा परिग्रहः।
-तत्त्वार्थसूत्र, अ. ७, सू. १२ (ग) कम्मपरिग्गहे, सरीरपरिग्गहे बाहिर भंडमुत्तपरिग्गहे। -भगवतीसूत्र, अ. १८, सू. ७