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________________ ४४० कर्मविज्ञान : भाग ६ हिंसा का प्रत्याख्यान करता है, किन्तु वह जीव, अजीव या त्रसजीव, स्थावरजीव का सम्यक् प्रकार से जानता नहीं है, उसका वह प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं, दुष्प्रत्याख्यान होता है।” जीवादि तत्त्वों से अनभिज्ञ व्यक्ति यदि ऐसा प्रत्याख्यान करता है, तो वह मिथ्याभाषी है और सर्वप्राणी आदि के प्रति विविध रूप से असंयत, अविरत है, पापकर्मों का प्रत्याख्यान शब्दों से करने पर भी वह पापकर्म को प्रतिहत ( नष्ट ) नहीं कर पाता; वह उक्त पापकर्म के प्रत्याख्यान से रहित है, असंवृत है, (साम्परायिक) क्रियायुक्त एकान्तदण्डी और एकान्तबाल है। इसके विपरीत जो जीवादि को सम्यक् जानकर प्रत्याख्यान करता है, वह सत्यभाषी है, संयत, विरत, सप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान से पापकर्मों का नाश करता है, साम्परायिक क्रियारहित, संवृत और पण्डित है । ' नियम और व्रत; प्रत्याख्यान का अन्तर इसलिए पं. आशाधर जी ने भी गृहस्थों के नियम और व्रत का अन्तर समझाते हुए कहा है- भोग्य वस्त्रादि पदार्थों (सचित्त, द्रव्य, वस्त्र आदि १४ प्रकार के पदार्थों) की संकल्पपूर्वक मर्यादा करना नियम है और हिंसादि अशुभ कृत्यों से निवृत्ति और शुभ कार्यों में प्रवृत्ति व्रत कहलाता है। दूसरे शब्दों में मन, वचन, काया की सावध प्रवृत्तियों और कार्यों का प्रत्याख्यान (त्याग) तथा आध्यात्मिक सदनुष्ठानों का करना व्रत है । 'स्थानांगसूत्र' में श्रद्धानविशुद्धि, विनयविशुद्धि, अनुभाषणाशुद्धि, अनुपालनाशुद्धि और भावशुद्धि ये पाँच प्रकार (स्थान) प्रत्याख्यानशुद्धि के बताये हैं । २ विरति - संवर का अनन्तर और परम्परागत फल इस प्रकार के विरति - संवर का फल श्रमण - पर्युपासना, श्रवण, ज्ञान और विज्ञान के पश्चात् प्रत्याख्यान बताया है, फिर क्रमशः प्रत्याख्यान का फल संयम, संयम का फल आनव-निरोध ( संवर), आनव-निरोध का फल तपश्चरण, तप का फल निर्जरा ( व्यवदान ), निर्जरा का फल अक्रिया (सभी प्रकार की कायिक वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियों व्यापारों-क्रियाओं का निरोध) और १. एवं खलु से दुप्पच्चक्खाई' पच्चक्खाणमिति वदमाणो नो सच्चं भासं भासइ । - भगवतीसूत्र, श. ७, उ. २, सू. २७ २. (क) संकल्पपूर्वकः सेव्ये, नियमोऽशुभकर्मणः, निवृत्तिर्वाव्रतंस्याद् वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि । - सागार धर्मामृतम् २/८० (ख) सद्दहणसुद्धे विणयसुद्धे अणुभासणासुद्धे अणुपालणासुद्धे भावसुद्धे । - स्थानांगसूत्र, स्था. ५, उ. ३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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