SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 445
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ विरति-संवर : क्यों, क्या और कैसे? 8 ४२५ ॐ सुविधावादी का जीवन अनैतिकता के शिकंजों में किन्तु दुःख की बात यह है कि जो लोग सुविधावादी हैं, वे लोग पंचेन्द्रिय के प्रिय विषयों को पाने की धुन में रात-दिन दौड़ लगाते हैं, उन्हें आराम करना और सुख से बैठे रहकर, आलसी बनकर या श्रम से जी चुराकर रहना अच्छा लगता है। इसके परिणामस्वरूप उनका जीवन अनेक भयंकर लोगों का शिकार होता जाता है, समाज में अपने कर्तव्य और दायित्व बोध से वे दूर होकर अपने स्वार्थ को ही प्रधानता देने लगते हैं। वे दूसरों की आवश्यकताओं और अधिकारों की ओर से आँखें मूंद लेते हैं। उनमें परार्थभावना प्रायः प्रादुर्भूत नहीं होती है, परमार्थभावना तो बहुत ही दूर की बात है। प्रकृतिदत्त चीजों को बर्बाद करने का अधिकार नहीं साबरमती आश्रम में महात्मा गांधी जी ठहरे हुए थे। प्रातःकाल वे एक छोटे-से लोटे भर पानी से हाथ-मुँह धो रहे थे। सरदार पटेल ने उनसे कहा-"बापू ! यहाँ तो साबरमती नदी बह रही है। आप इतने थोड़े-से पानी से अच्छी तरह कुल्ला नहीं कर पा रहे हैं। कहें तो मैं अभी बाल्टी भरकर पानी ले आऊँ।" महात्मा गांधी जी बोले-“सरदार ! साबरमती नदी अकेले हमारी नहीं है। इस पर लाखों-करोड़ों लोगों का अधिकार है। जरूरत से ज्यादा पानी ढोलना हमारी अनैतिकता होगी, प्रकृति की चीजों को व्यर्थ बर्बाद या दुरुपयोग करने का हमें अधिकार नहीं है।"१ . .. संसार की सभी वस्तुओं पर एक व्यक्ति का अधिकार नहीं - ऐसी परार्थभावना तभी होती है, जब व्यक्ति का दृष्टिकोण निजस्वार्थ-परायण सुविधावाद से युक्त न हो। स्मृतिकार ऋषियों ने कहा है-"जितने भर से अपना पेट भरे उतने मात्र पर व्यक्ति का उपभोग करने का अधिकार है, जो उससे अधिक उपभोग करता है, वह चोर है।"२ इसी प्रकार जितने से निर्वाह हो सके उतनी ही सम्पत्ति या वस्तुओं पर व्यक्ति का अधिकार है। शेष समग्र पदार्थ अनधिकृत हैं। उन पर अकेले एक व्यक्ति का अधिकार नहीं है। कोई अकेला व्यक्ति जीवन-निर्वाह योग्य पदार्थों पर अपना अधिकार जमाकर बैठ जाए, यह अन्याय है, अनुचित साहस है। सुविधा के प्रायः सभी साधन प्रकृति-विरुद्ध और कृत्रिम हैं आज सुविधा के प्रायः सभी साधन प्रकृतिजन्य नहीं हैं। न ही प्राकृतिक हवा है, न ही नैसर्गिक प्रकाश है, कृत्रिम आहार, कृत्रिम पानी आदि हैं। इस प्रकृति १. 'हरिजन सेवक' से भावांश ग्रहण २. यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्। योऽधिकमुपभुङ्क्ते सं स्तेनो दण्डमर्हति॥ -मनुस्मृति
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy