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३९८ कर्मविज्ञान : भाग ६
में छूट गये, उतने अंशों में संसार भी छूट गया तथा मोक्षभाव आत्मा में जाग्रत हो. गया। वैसे तो निश्चयनय की दृष्टि से मोक्ष आत्मा में ही है, स्थान- विशेष तो बाद की बात है। जितने भी मुक्त हुए, उन सब की मुक्ति आत्मा में ही हुई है। आत्मा पूर्ण शुद्धोपयोग में आई, तभी वहीं उनकी मुक्ति (सर्वकर्ममुक्ति) हो गई । '
(३) निश्चय-सम्यक्त्व-संवर - साधक आत्मा के मूल स्वभाव को पकड़कर चलता है। संसार में ये जो विभिन्न भेद दिखाई दे रहे हैं, उन्हें वह मौलिक नहीं, आत्म-स्वभाव नहीं, कर्मोपाधिक और विभावजन्य मानता है । इसीलिए विभिन्न भेदों में अभेदरूप से प्रतीत होने वाले इस अखण्ड चैतन्य को लक्ष्य करके भगवान ने कहा था—‘“एगे आया।” स्वरूप की दृष्टि से आत्मतत्त्व सबमें एक-सा है। सत्ता और स्वरूप की दृष्टि से आत्मा - आत्मा में कोई भी मौलिक. भेद नहीं है। अमुक-अमुक कर्मों के उदय के कारण ही भेद है। अतः रंगभेद, लिंगभेद, वर्णभेद, स्त्री-पुरुषभेद आदि सब भेद शरीर के हैं, बाह्य हैं, मिट्टी के हैं, आत्मा के नहीं । जब इस प्रकार की विशुद्ध आत्म-दृष्टि विकसित होगी, तभी निश्चय - सम्यक्त्वसंवर सक्रिय होगा। उससे सर्वभूतात्मभूतदृष्टि और आत्मौपम्यदृष्टि का विकास होने
पापकर्म का बन्ध तो रुक ही जायेगा, शुभ योग - संवर का लाभ होगा। निश्चय-सम्यक्त्व-संवर की भावना सक्रिय होने पर कर्मनिर्जरा और सर्वकर्ममुक्ति भी हो सकेगी। साथ ही ‘रयणसार' के अनुसार - सम्यक्त्व - संवर का वह साधक अपना समय (व्यर्थ की निन्दा चुगली या कलह विकारादि में न खोकर ) ज्ञान और वैराग्यभाव में व्यतीत करता है ।२ "यदि निश्चय - सम्यक्त्व - संवर के साधक में भी निश्चयदृष्टि से भेद-बुद्धि, विकल्प - बुद्धि, परनिन्दा - जुगुप्सा - कलहादि वृत्ति रही तो वह मिथ्यात्व एवं रागादि प्रवाह को जीतने में सफल नहीं होगा। परन्तु 'द्रव्यसंग्रह टीका' के अनुसार-असंयत सम्यग्दृष्टि भी मिथ्यात्व व रागादि को जीतेंगे तो उतने अंशों में एकदेशतः (अंशतः ) वीतराग कहे जा सकेंगे।”३
(४) निश्चय - सम्यक्त्व-संवर के साधक के ज्ञान- नेत्र खुल जाने से उसके अन्तर में भेदविज्ञान जग जाता है, फलतः वह शरीरादि पर भावों तथा रागादि विभावों से ज्ञानादि स्वभावमय आत्मा को पृथक् समझता है। अपने जाति,
कुल,
१. (क) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ३२, गा. ३४
(ख) 'सम्यग्दर्शन : एक अनुशीलन' से भाव ग्रहण, पृ. ६-७
(ग) कषायमुक्तिः किलमुक्तिरेव ।
(घ) 'बृहदालोयणा' (लाला रणजीतसिंह जी ) से भाव ग्रहण
२. समाइट्ठी कालं नोलेइ वेरग्ग- णाण-भावेण ।
३. जिनमिथ्यात्व-रागादित्वेन एकदेशजिना: असंयतसम्यग्दृष्ट्यः ।
- रयणसार, गा. ५७
- द्रव्यसंग्रह टीका १/५/११