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________________ * ३५२ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ % परीषह-सहिष्णुता के विकास के लिए धृति अपेक्षित है ___ परीषह-सहिष्णुता का विकास करने के लिए जीवन में धृति अपेक्षित है। धृतिः होती है तो मनुष्य कठोर से कठोर अनुशासन को सह सकता है। धृति कमजोर होने पर मनुष्य का मनोबल गिर जाता है। इसीलिए परीषहों को सहने. के लिए साधक के हृदय में धैर्य का दीपक प्रज्वलित रहना चाहिए। परीषह बाईस प्रकार के बताए हैं। उनमें सर्वप्रथम दो परीषह हैं-क्षुधा और पिपासा। इन दोनों का या अन्य परीषहों को सहने का तात्पर्य केवल भूखं, प्यास, ठंड, पमी आदि को ही जैसे-तैसे सहन कर लेना नहीं है, उसका तात्पर्य है-भूख, प्यास, सर्दी-गर्मी आदि समभावपूर्वक सहन कर सके, ऐसी धृति का विकास करना 'चरक' के वृत्तिकार चक्रपाणी दल्हण ने धृति का लक्षण किया है जिसके द्वारा मन पर नियंत्रण हो, ऐसी बुद्धि धृति है। 'दशवैकालिकसूत्र' में सुसमाहित संयमी साधकों की कष्ट-सहिष्णुता का दिग्दर्शन कराते हुए कहा गया है-"वै संयत सुसमाहित (सुख-समाधिस्थ) हैं, जो ग्रीष्म ऋतु में आतापना लेते हैं, हेमन्त ऋतु में अपावृत (खुले वदन) हो जाते हैं और वर्षा ऋतु में इन्द्रियों और मन को आत्मा में प्रतिसंलीना कर लेते हैं। साथ ही वे महर्षिगण परीषह-रिपुओं का दमन कर लेते हैं, मोह को प्रकम्पित कर देते हैं, जितेन्द्रिय हो जाते हैं। वे. अपने सभी (पूर्वबद्ध कर्मजनित) दुःखों को प्रक्षीण करने के लिए ही ऐसा पराक्रम करते हैं।"२ परन्तु इन सब के पीछे धृतिबल है। सारा नियंत्रण धृति के द्वारा ही सम्भव है। ‘दशवैकालिक नियुक्ति' में एक प्रश्न उठाया गया है-श्रामण्य (श्रमण-जीवन) को कौन भलीभाँति निभा सकेगा? उत्तर में कहा गया है जिसके जीवन में धृति है, वह श्रमण-जीवन का अन्त तक सम्यक् पालन करेगा। जिस साधक के जीवन में धृति नहीं है, वह सामान्य कष्ट से, मानसिक प्रतिकूलता से घबरा जाएगा, श्रमणत्व से भ्रष्ट हो जाएगा। मुख्य परीषह बाईस हैं, वे क्रमशः इस प्रकार हैं-(१) क्षुधा, (२) पिपासा, (३) शीत, (४) उष्ण, (५) दंश-मशक, (६) नग्नत्व, (७) अरति, १. क्षुत्पिपासा-शीतोष्ण-दंशमशक-नाग्न्याऽरति-स्त्री-चर्या -निषद्या-शय्याऽऽक्रोश-वधयाचनाऽलाभ-रोग-तृणस्पर्श-मल-सत्कार-पुरस्कार-प्रज्ञाज्ञानाऽदर्शनानि।। __ -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. १० २. आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा। वासासु पडिसंलीणा संजया सुसमाहिया॥१२॥ परीसह-रिउदंता धूअमोहा जिइंदिया। सव्वदुक्ख पहीणट्ठा पक्कमंति महेसिणो॥१३॥ -दशवैकालिकसूत्र, अ. ३, गा. १२-१३
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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