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® ३२६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
करोड़ों की सम्पत्ति तथा सुखभोग के प्रचुर साधन होते हुए भी वे सुखी नहीं हैं। उनके जीवन में प्रायः तनाव, चिन्ता, भय, अशान्ति, अनिद्रा आदि दुःख प्रचुर मात्रा में हैं। उनके अधिक सुखी और निश्चिन्त वह त्यागीवर्ग है, जिसके पास बहुत ही कम साधन हैं और जिसे भोगों के साधनों को प्राप्त करने की स्पृहा नहीं है। दुःख वस्तुओं के अभाव में नहीं, कामनोत्पत्ति में है ।
. अतः यह अनुभूत तथ्य है कि दुःख वस्तुओं के अभाव में नहीं है, वस्तुओं को पाने की कामना जब से उत्पन्न होती है, तभी से दुःख प्रारम्भ होता है। इससे सिद्ध होता है कि इच्छाकाम और मदनकाम दोनों ही प्रकार के कामों को पहले बताई हुई अनुप्रेक्षाओं के द्वारा निरुद्ध कर दिया जाय अथवा उन कामनाओं का स्वेच्छा से त्याग कर दिया जाए और अपनी आत्मा में निहित स्वाधीन-सुख को ढूँढ़ा जाए तो
आत्मा के साथ मैत्री कायम रह सकेगी। जीवन-निर्वाहोचित भोग्य वस्तुओं का किसी कामना-स्पृहा के बिना उपभोग करने पर भी वे वस्तुएँ कर्मबन्ध का कारण
और भविष्य में दुःख का कारण नहीं बन सकेंगी। इसीलिए 'समयसार' में कहा गया है-“कर्मबन्ध वस्तु से नहीं, राग-द्वेष के अध्यवसाय से होता है। ज्ञानी आत्मा (अन्तर में रागादि न होने के कारण) विषयों का सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता। जबकि अज्ञानी आत्मा (अन्तर में रागादि होने से) विषयों का सेवन नहीं करता हुआ भी (अन्तर में उन्हें पाने की लालसा का स्वेच्छा से त्याग न होने के कारण) सेवन करता है।" निष्कर्ष यह है-मनोज्ञ-मनचाही वस्तुओं, व्यक्तियों, परिस्थितियों को प्राप्त करने की कामना का अन्तर से त्याग न करने से उन्हें पाने की कामना-लालसा से अभाव का दुःख बना रहेगा। इसीलिए ‘दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया है-“कामनाओं (कामों) को दूर करो (मन से उनको पाने की लालसा न करो) क्योंकि कामना ही दुःख का कारण है।"१ संसार में अनेक प्रकार के दुःख, उनके विभिन्न रूप और प्रकार __ संसार में अनेक प्रकार के दुःख हैं। शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि जीवन के जितने भी अंग या क्षेत्र हैं, उनमें प्रत्येक में नानाविध दुःख हैं। शारीरिक दुःखों में जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ या परिस्थितियाँ तथा भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी,
१. (क) 'दुःखमुक्ति : सुखप्राप्ति' से भावांश ग्रहण, पृ. १२
(ख) णय वत्थुदो दु बंधो, अज्झवसाणेण बंधोऽत्थि। (ग) सेवंतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो होइ। (घ) कामे कमाही, कमियं खु दुक्खं।
-समयसार २६५
-वही १९७ -दशवकालिकसूत्र २/३