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________________ ॐ २८८ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ * करुणा की होली : हृदयहीनता और क्रूरतापूर्ण तर्क कई लोग यह तर्क करते हैं कि भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, दुष्काल आदि के कारण जब मनुष्य और पशु पीड़ित, बेघरबार और तबाह होने लगते हैं, तो हम क्या करें। क्या हमने उन्हें तबाह या पीड़ित किया है ? वे जीव अपने-अपने अशुभ कर्मों (पापों) के फलस्वरूप कष्ट पा रहे हैं, इन्होंने इससे पूर्व स्वयं अज्ञान, कषाय और मोहवश दूसरों को कष्ट पहुँचाए होंगे, उन्हीं पापों की अधिकता का यह दण्ड इन्हें भोगना पड़ रहा है। उन दुष्कर्मों (चोरी, जारी, लूट, बेईमानी, ठगी, हत्या आदि पापों) का फल किसी भी निमित्त से इन्हें भोगना ही चाहिए। हमने इन्हें कोई दुःख या कष्ट नहीं पहुंचाया है। हम तो यह जानते हैं कि जो जैसा करता है, उसे उसका फल भोगना पड़ता है। हम इसमें क्या कर सकते हैं ? दुनियाँ में प्रतिदिन सैकड़ों प्राणी मरते हैं, मनुष्य भी मरते हैं। तब हम इनके दुःखों का निवारण कैसे और क्यों करें ? और इनके पूर्वकृत कर्मों का फल भोगने में बाधक निमित्त क्यों बनें? दुःखातों पर करुणा करने से व्यक्ति कर्मफलभोग में बाधक नहीं होता क्या इस प्रकार विपद्ग्रस्त दुःखार्त व्यक्तियों को उनके पापों का दण्ड भोगने का कहकर करुणा, सहानुभूति या अनुकम्पापूर्वक सहयोग देने से आनाकानी करना उचित है? क्या यह हृदयहीनता व करुणा की. होली नहीं है? यह ठीक है कि उन दःखात जीवों ने अज्ञानादि किसी भी कारणवश अशुभ कर्म बाँधे हों, उनके फलस्वरूप उन्हें दुःख भोगना पड़ रहा हो। परन्तु प्रथम तो आप (दूसरे व्यक्ति) को यह ज्ञात नहीं है कि यह फल उन्हें किस दुष्कर्म का मिल रहा है ? सम्भव है, उन्हें अपने दुष्कर्मों का फल आपकी सहानुभूति, सहृदयता, करुणा और अनुकम्पा से सान्त्वना पाकर भोगने में इतना दुःखद न लगे अथवा आपके द्वारा की हुई करुणादि से आश्वस्त होकर शायद वे समभावपूर्वक शान्ति से कर्मफल भोग सकें। इस दृष्टि से तो आप उनके द्वारा कर्मफल भोगने में न तो बाधक बनते हैं या बन सकते हैं। उन्हें जिस प्रकार से, जिस रूप में कर्मफल भोगना होगा, वे भोगेंगे। करुणाभावना के साधक को अनायास ही पुण्य का लाभ यदि कोई करुणाभावनापूर्ण साधक उनके दुःख-निवारण में सहायक बने, सहानुभूति, सद्भावना या दुःख-निवारण की मंगल कामना व्यक्त करे तो इससे उस. करुणा-साधक को पुण्य का लाभ तो होगा ही, निःस्वार्थभाव से आत्मौपम्यभाव में १. 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. ६०-६१
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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