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________________ * मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव * २७१ ® से प्रेरित होकर ऐसे व्यक्ति उस पुण्यात्मा को नीचा दिखाने, उसके प्रति लोकश्रद्धा डिगाने अथवा उसके प्रति मिथ्या दोषोभावन करके कलंकित करने का प्रयास करते हैं। इसी प्रकार पर-निन्दा की भावना असूया है तथा पापात्मा को देखते ही उसके प्रति घृणा, द्वेष, तिरस्कार की भावना पैदा होती है। चित्त की प्रसन्नता और निर्मलता के लिए चार भावनाएँ इस प्रकार कर्ममुक्ति के साधक के जीवन में इन चारों कोटि के प्राणियों और व्यक्तियों के प्रति चित्त में यदि राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि अशुभ कर्मबन्धक विकार आते हैं। उसका चित्त राग-द्वेष-कषायादि कालुष्यों से मलिन होता है, उससे कोई कर्ममुक्तिरूप मोक्ष की साधना सफल नहीं हो सकती। इसी से बचने तथा चित्त की निर्मलता, त्रिविध योगों की पवित्रता के लिये 'योगदर्शन' ने चार भावनाओं से युक्त ठोस उपाय बताया है “मैत्री-करुणा-मुदितोपेक्षाणां · सुख-दुःख-पुण्यापुण्य-विषयाणां भावनातश्चित्त प्रसादनम्।" -सुख, दुःख, पुण्य और अपुण्य (पाप) विषयों से युक्त व्यक्तियों के प्रति क्रमशः मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा की भावना से चित्त की प्रसन्नता (स्वच्छता) बनाये रखे। कर्ममुक्ति के लिये अथवा संवर-निर्जरा-मोक्ष की साधना के लिये यह आवश्यक है कि उसका चित्त कर्ममलों के निष्पादक राग-द्वेषादि से दूर हो। इसके लिए शुभनिमित्तों से सम्पन्न सुखी व्यक्तियों के प्रति मैत्रीभावना हो, दुःखित प्राणियों या व्यक्तियों के प्रति करुणाभावना हो, पुण्यात्मा मुनिजनों के प्रति मुदिताभावना हो और पापात्मा या प्रतिकूलवृत्ति वाले व्यक्तियों के प्रति उपेक्षाभावना हो। इस प्रकार चार कोटि के व्यक्तियों या प्राणियों के प्रति साधक के मन में उक्त चारों भावनाएँ जाग्रत रखेगा तो उसके चित्त में विषमता पैदा करने वाली राग-द्वेषादि दुर्भावनाएँ उदित नहीं होंगी।२ । आत्मा को समभावनिष्ठ बनाने हेतु चार भावनाओं की अभ्यर्थना चूँकि राग-द्वेषादि से विषमता पैदा होती है, वह अशुभ कर्मबन्ध का कारण है, इस दृष्टि से सामायिक पाठ (अध्यात्म-द्वात्रिंशिका) के रचयिता आचार्य १. 'योगदर्शन' (विद्योदयभाष्यसहित) से भाव ग्रहण, पृ. ६४ २. (क) पातंजल योगदर्शन, समाधिपाद १, सू. ३३ (ख) 'योगदर्शन' (विद्योदयभाष्यसहित) से भावांश ग्रहण, पृ. ६४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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