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________________ २५२ कर्मविज्ञान : भाग ६ जैन - सिद्धान्त के अनुसार - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल, इस प्रकार लोक षड्द्रव्यात्मक हैं। जीवों और पुद्गलों को गति प्रदान करने में और उन्हें स्थिति (स्थिरता) प्रदान करने में सहायक क्रमशः धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय हैं। आकाशास्तिकाय अवकाश प्रदान करता है । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल, ये पाँच द्रव्य अजीव हैं और जीवास्तिकाय जीव है। इस प्रकार लोक जीवअजीवरूप (जड़चेतनमय) है। यानी जीव और अजीव से व्याप्त हैं। ये छह द्रव्यं हैं, वह लोक और जहाँ केवल आकाश ही हो, वह अलोक कहलाता है। लोक ससीम है, अलोक असीम। जिस आकाशखण्ड में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय, ये दो द्रव्यं व्याप्त हैं, वह लोक है; तथैव जीव और पुद्गल की गति और स्थिति लोक तक ही होती हैं। अलोक में गति- स्थिति के माध्यम न होने से वहाँ पूर्वोक्त पाँचों द्रव्य नहीं होते । यही लोक की प्राकृतिक सीमा है। लोक अलोकाकाश से घिरा हुआ है। लोक ( लोकाकाश) तीन भागों में विभक्त है- ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक। लोक की लम्बाई १४ रज्जू- प्रमाण है। ऊर्ध्वलोक सात रज्जू से कुछ कम है, अधोलोक सात रज्जू से कुछ अधिक लम्बा है तथा मध्यलोक १८०० योजन ऊँचा (लगभग १ रज्जू) एवं असंख्य द्वीप - समुद्र-परिमाण विस्तृत है। ऊर्ध्वलोक २६ प्रकार के वैमानिक देवों का निवास है, मध्यलोक में मुख्यतया मनुष्य, तिर्यंच तथा व्यन्तरदेव, ऊपर में ज्योतिष्कदेव रहते हैं और अधोलोक में सातों नरक के नारकों का तथा भवनपतिदेवों का निवास स्थान है। चारों गति के जीव इस लोक में समाविष्ट हैं। लोक के अग्रभाग ( अन्त) में सिद्धशिला है, जहाँ मुक्त (सिद्ध) आत्मा रहते हैं। लोक का संस्थान सुप्रतिष्टक आकार वाला है अथवा तीन सकोरों में एक सोरा उल्टा, उस पर एक सकोरा सीधा तथा उस पर फिर एक सकोरा उल्टा रखने से जो आकृति बनती है, तदाकाररूप है। लोक को पुरुष की संज्ञा दी गई है जामा पहनकर तथा पैर फैलाकर कोई पुरुष खड़ा हो, उसके दोनों हाथ कमर पर रखे हों, ऐसे पुरुष से लोक की उपमा दी गई है। अलोक का आकार बीच में पोल वाले गोले के समान है, वह एकाकार है। उसका कोई विभाग नहीं होता । लोक मे पृथ्वी घनोदधि पर स्थित है, घनोदधि घनवायु पर और घनवायु तनुवायु पर प्रतिष्ठित है, यह तनुवायु आकाश पर स्थित है। लोक में नीचे से ज्यों-ज्यों ऊपर १. (क) षड्द्रव्यात्मको लोकः । (ख) धर्माधर्माऽकाश-पुद्गलाः । द्रव्याणि जीवाश्च । गतिस्थित्युपग्रहो धर्माधर्मयोरुपकारः - तत्त्वार्थसूत्र, अ. ५, सू. १-२, १७-१८ आकाशस्याऽवगाहः ।
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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