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२३० कर्मविज्ञान : भाग ६
शरीर के ऊपरी भाग को न देखकर आन्तरिक भाग को देखो
पर्य यह है कि अशुचित्वानुप्रेक्षा से एक ओर साधक शरीर के प्रति ममतामूर्च्छा से विरक्ति, क्षीणता और अनासक्ति हो जाती है, तो दूसरी ओर से वह आत्म-गुणों के प्रति अभिमुख होता है। सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - तपरूप सद्धर्म ही सत्य है, शुद्ध है, सुखदायक है, यह जानकर शरीर के माध्यम से आत्मा में निहित, किन्तु सुषुप्त अनन्तज्ञान-दर्शन - आनन्द- शक्तिमय अनन्तचतुष्टयरूप स्वभाव को प्रकट कर पाता है। इस शरीर में अगणित सारभूत तत्त्व विद्यमान हैं। कितने ही चैतन्य केन्द्र हैं, कितनी ग्रन्थियाँ, कितने ही रसायन एवं शक्तियाँ हैं, उन सबकी अभिव्यक्ति शरीर के माध्यम से हो सकती है। शक्तियों का स्रोत फूटने पर, आवरण के हटने पर, आन्तरिक आत्म- सम्पदाएँ प्रगट हो सकती हैं। यदि वे जाग्रत हो जाएँ तो अतीन्द्रिय ज्ञान भी हो सकता है। उन सबका माध्यम एकमात्र मानवशरीर है, जो आत्मा से परमात्मा तक, इन्द्रिय ज्ञान से अतीन्द्रिय ज्ञान तक पहुँचा सकता है। अतः अशुचित्वानुप्रेक्षा के द्वारा साधक अज्ञान और मूर्च्छा को दूर करके आत्मदेव या परमात्मदेव के मन्दिर इस शरीर में निहित शक्तियों का मूल्यांकन करे और अपने भीतर उस सामर्थ्य को खोजने का पुरुषार्थ करे। जो ध्यान अब तक शरीर की साज-सज्जा आदि में लगा रहा, यानी शरीर के ऊपरी भाग तक लगा रहा, उसे अब आन्तरिक् भाग में लगाए। ऐसा करने से सहज ही कर्मों का निरोध और क्षय हो सकेगा।'
सूक्ष्म शरीर के दुरुपयोग और सदुपयोग से हानि-लाभ
जैनदर्शन के अनुसार शरीर के स्थूल भाग के साथ-साथ दो सूक्ष्म शरीर भी हैं - एक का नाम है तैजस् शरीर और दूसरा है कार्मणशरीर । तैजस् शरीर के द्वारा पूरे शरीर में प्राण की, ऊर्जा की या जैविक विद्युत् की धारा प्रवाहित होती है । इससे पूरे शरीर को शक्ति प्राप्त होती है। हमारे सारे क्रियाकलाप या प्रवृत्तिचक्र इसी के आधार पर चलते हैं । तैजस् शरीर द्वारा समुत्पन्न प्राण-शक्ति ही शरीर की सारी शक्तियों को टिकाये रखती है । अतः उस प्राण-शक्ति की वृद्धि का अहंकार, मोह या दुरुपयोग हो तो वह अशुभ आम्रव और अशुभ कर्मबन्ध का कारण बन जाता है और यदि उसका सदुपयोग हो तो अनुप्रेक्षक साधक स्मृति एवं संकल्प
१. (क) वपुषि विचिन्तय परमिह सारं, शिव-साधन-सामर्थ्यमुदारम् ।
-शान्तसुधारस, अशौचानुप्रेक्षा ७
(ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ५३
(ग) शान्तसुधारस ' हिन्दी अनुवाद, चिन्तनिका नं. ६ ( मुनि राजेन्द्रकुमार) से भावांश ग्रहण