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* कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ ॐ २०९ ॐ
आनन्दमय, आमोद-प्रमोद का कारण तथा परिवार आदि बन्धनों में आसक्तिरूप मानते हैं, उस प्रकार उन्होंने नहीं माना। संसार का लक्षण उन्होंने संक्षेप में यही किया है-“मिथ्यात्व और कषायों से युक्त जीव का जो अनेक शरीरों में संसरण = परिभ्रमण होता है, उसे संसार कहते हैं।" आशय यह है-कर्मविपाकवश आत्मा को एक भव से दूसरे भव की प्राप्ति होते रहना संसार है। मिथ्यात्व और कषा से कर्मबन्धन होता है और जब तक कर्म हैं, तब तक संसार में परिभ्रमण करन पड़ता है। 'बारस अणुवेक्खा' के अनुसार-यह जीव जिन-मार्ग (वीतरागता के सुपथ) की ओर ध्यान नहीं देता है, इस कारण जन्म, जरा, मृत्यु, रोग और भय से भरे हुए पाँच प्रकार के संसार में अनादिकाल से भटक रहा है। इस जीव को कर्मवशात् एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर की, दूसरे को छोड़कर तीसरे की प्राप्ति होती है, यों जब तक कर्म है, तब तक यों चिरकाल तक एक के बाद दूसरे शरीर की प्राप्ति होते रहना संसार है। शरीर की प्राप्ति शुभाशुभ कर्मों के अनुसार होती है, उन्हीं कर्मों के यंत्र से प्रेरित होकर नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, इन चार गतियों, विविध योनियों. तथा कुलकोटियों से व्याप्त इस संसार में जीव परिभ्रमण करता हुआ नाना प्रकार के दुःखों तथा वैषयिक क्षणिक सुखों को भोगता है। कर्मोदयवश कभी पिता, कभी भ्राता; कभी पुत्र, कभी पुत्री, कभी पत्नी, कभी दास, कभी वही स्वामी, इस प्रकार इस संसाररूपी नाट्यशाला में आकर जीव अपना-अपना पार्ट अदा करके चला जाता है।' - संसार की विचित्रता के स्वभाव का चिन्तन : संसारानुप्रेक्षा - इस संसाररूपी नाट्यशाला के गतिरूपी रंगमंचस्थली पर आकर जीव भाँति-भाँति के अभिनय करता है। जीवों की स्थिति, गति, मति, क्षमता आदि एक-सी नहीं रहती। इसलिए जितने अभिनय करने वाले होते हैं, उतने ही १. (क) एकं चयदि सरीरं, अण्णं गिण्हेदि णवणवं जीवो। .. .. पुणु पुणु अण्णं अण्णं गिण्हादे मुंचेदि बहुवारं॥३२॥
एवं जं संसरणं, णाणादेहेसु हवदि जीवस्स। .. सो संसारो भण्णदि, मिच्छ कसायेहिं जुत्तस्स॥३३॥ कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३२-३३ (ख) पंचविहे संसारे, जाइ-जरा-मरण-रोग-भयपडरे।
जिणमग्गमपेच्छंतो जीवो परिभमदि चिरकालं!! -बारस अणुवेक्खा २४ (ग) कर्मविपाकवशादात्मनो भवान्तरावाप्तिः। स पुरस्तात् पंचविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्यातः।
तस्मिन्ननेक-योनि-कुलकोटि-बहुशत-सहस्र-संकटे, संसारे परिजनन् जीवः कर्मयंत्र-प्रेरितः पिताभूत्वा भ्राता, पुत्रः पौत्रश्चभवति। नट इव रंगे। अथवा किंबहुना, स्वयमात्मनः पुत्रो भवतीत्येवादि संसार-स्वभाव-चिन्तनमनुप्रेक्षा। सर्वार्थसिद्धि ९/७/४१५