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________________ * संवर और निर्जरा की जननी : भावनाएँ और अनुप्रेक्षाएँ - १९१ 8 करके अनादिकाल से आज तक मोक्ष में गए हैं, उनको मैं मन-वचन-काय से बार-बार नमस्कार. करता हूँ। इस विषय में अधिक क्या कहें, इतना ही कहना पर्याप्त है कि अतीत में जितने भी श्रेष्ठ पुरुष सिद्ध (सर्वकर्ममुक्त) हुए हैं और जो आगे होंगे, वे सब इन्हीं अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) के पुनः पुनः चिन्तन से हुए हैं। इसे अनुप्रेक्षाओं का ही माहात्म्य समझना चाहिए।" अतीत में चिलातीपुत्र, दृढ़ प्रहारी, अर्जुन मुनि, भरत चक्रवर्ती, एलापुत्र (इलायचीकुमार) आदि अनेकों साधक अनुप्रेक्षा के प्रभाव से केवलज्ञानी और सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए हैं। इसीलिए 'उत्तराध्ययनसूत्र' में अनुप्रेक्षा की अन्तिम परिणति के रूप में कहा गया है“अनुप्रेक्षा से चातुरन्त एवं अनादि-अनन्त दीर्घ पथ वाले संसाररूप महारण्य को जीव सुखपूर्वक पार कर जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब अनुप्रेक्षा से भावधारा उज्ज्वल और प्रखर हो जाती है, तब कर्मों की स्थिति, अनुभाग, प्रकृति और प्रदेश चारों में परिवर्तन हो जाता है। ऐसी स्थिति में वह जीव अधिक काल तक संसार में भ्रमण नहीं कर सकता। वह शीघ्र ही संसाररूपी महारण्य को पार करके मुक्ति के महालय में पहुँच जाता है।२ अनुप्रेक्षा का अपर नाम सखी भावना • अनुप्रेक्षा का ही दूसरा नाम भावना है। भावना अनुप्रेक्षा का ही पूर्वरूप है। कहावत है-“यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।"-जिसकी जैसी भावना होती है, उसके अनुसार ही उसके जीवन की सिद्धि (निर्मिति) होती है। जीवन की सभी अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों पर मनुष्य की अच्छी-बुरी भावना की प्रतिछाया पड़ती है। अतः जैन-कर्मवैज्ञानिकों ने कर्मों से मुक्ति के अभिलाषियों के लिए संवरनिर्जरारूप या ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप धर्म की वृद्धि और मुमुक्षु की आत्म-शुद्धि के लिए १२ आध्यात्मिक भावनाओं से भावित होने का निर्देश किया है। इससे स्पष्ट है कि भावना से यहाँ सामान्य भावना इष्ट नहीं है, किन्तु धर्मभाव, वैराग्य, संवेग और भावशुद्धि एवं भेदविज्ञान जगाने वाली विशिष्ट शुभ भावना ही अभिप्रेत है।३ १. 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. ९ २. (क) मोक्खगया जे पुरिसा अणाइकालेण बार-अणुवेक्खं। परिभविऊण सम्मं प्रणमामि पुणो-पुणो तेसिं।।८९॥ किं पल्लवियेण बहुणा, जे सिद्दा णरवरा गये काले। सेझंति य जे भविया. तज्जाणह तस्स माहप्पं ।।९०॥ -बारस अणुवेक्खा ८९-९० . (ख) “आगममुक्ता' से भावांश ग्रहण, पृ. १४८ । ३. जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४' में बोल ८१२ में बारह भावना का प्रारम्भिक ' परिचय. पृ. ३५५
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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