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ॐ संवर और निर्जरा का द्वितीय साधन : पंच-समिति ॐ १३३ ॐ
करता है। ‘भगवती आराधना' के अनुसार-शरीर तथा भूमि रजोहरण या पिच्छिका से प्रमार्जन न करके, मल-मूत्र जहाँ-तहाँ अविवेकपूर्ण डालना तथा उस स्थान का सम्यक् अवलोकन न करना इत्यादि परिष्ठापना-समिति के अतिचार (दोष) हैं।
इन अष्टप्रवचन माताओं से संवर और निर्जरा कैसे? वस्तुतः तीन गुप्तियों और पाँच समितियों से भाव-संवर तभी हो सकता है, जब जो आस्रव (मिथ्यात्वादि पंचविध कर्मागमन द्वार) चल रहा है या चला है उसका प्रतिक्रमण करें। उक्त आस्रव से साधक अपने स्वभाव में लौट आए। जो व्यक्ति अपने चैतन्य के अनुभव को छोड़कर राग-द्वेष के अनुभव में चला गया है, वह अब राग-द्वेष के अनुभव को छोड़कर पुनः चैतन्य के अनुभव में आ जाएँ। इसके अतिरिक्त कर्ममुक्ति की साधना के क्षेत्र में चार तथ्य प्रचलित हैं-संयम, चारित्र, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान; ये चारों संवर की प्रक्रिया से सम्बन्धित हैं। इन्द्रिय-संयम, मनःसंयम तथा चारित्र ये संवर तो हैं ही। आत्म-संयम तथा स्वरूपरमणरूप चारित्र से निर्जरा भी सम्बन्धित हैं। पाँचों समितियाँ और तीनों गुप्तियाँ इन चारों से सम्बन्धित हैं ही।
. महाव्रती और अणुव्रती दोनों के लिए उपादेय, पालनीय विविध कर्मों से मुक्ति के इच्छुक महाव्रती साधक के लिए ये अष्टप्रवचन माताएँ उपादेय हैं, वैसे ही अणुव्रती सद्गृहस्थ के लिए तथा मार्गानुसारी व सम्यग्दृष्टि के लिए भी ये सभी उपादेय हैं, उन्हें भी विवेकपूर्वक इनका सम्यक् पालन करना आवश्यक है।
प्रतिष्ठापन-शुद्धिपरः संयतः नख-रोम-सिंघाणक-निष्ठीवन-शुक्रोच्चार-प्रस्रवण-शोधने देह । र परित्यागे च विदित देशकालो जन्तूपरोधमन्तरेण प्रयतते। -रा. वा. ९/६/१६/५९७/३२