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________________ ॐ संवर और निर्जरा का द्वितीय साधन : पंच-समिति ॐ १३१ ॐ पर अपने अधिकार की बताने से लगने वाला असत्य अथवा दूसरे के निश्राय के शिष्य, विरक्त अथवा शिष्या या विरक्ता को बहकाकर, अपहरण कर या प्रलोभनादि देकर ले जाना या दूसरी जगह रखना-रखाना असत्य और चौर्य दोनों पाप हैं, इन सब पापों से निवृत्त होना या इन पापों का निरोध करना संवर है। निर्जरा तभी हो सकती है जब साधक उठाने-रखने का लोभ रोककर समभाव स्थिर हो अथवा आत्मा को शुद्ध भावों में उठाया या रखा जाये। पंचम परिष्ठापना समिति : स्वरूप, विधि और शुद्धि इसके पश्चात् पंचम समिति परिष्ठापन समिति है। इसे उत्सर्ग समिति भी कहते हैं। इसका पूरा नाम है-उच्चार-प्रनवण-खेल-सिंघाण-जल्न परिष्ठापनिका समिति। इसका सामान्यतया अर्थ होता है-उच्चार यांनी मल, प्रस्रवण यानी मूत्र, खेल यानी थूक या बँखार = कफ, सिंघाण यानी नाक का मैल, जल्ल यानी पसीना, इन या ऐसे ही मृत शरीर या शरीर से सम्बन्धित (फटे वस्त्र, मुक्त शेष अन्न, कीचड़ मिला पानी, फूटे पात्र या अन्य किसी उपकरण) वस्तु का सम्यक् प्रकार से विधिवत् परिष्ठापन करना = डालना परिष्ठापना समिति है। संक्षेप में अनुपयोगी वस्तु, यथा शरीर के मल-मूत्रादि तथा अन्य अनुपयोगी वस्तु को भलीभाँति देखभालकर जीवरहित ऐसे प्रासुक स्थान में डालना, जिससे किसी भी प्राणी को कष्ट न हो, परिष्ठापना समिति है। 'आवश्यकसूत्र वृत्ति' के अनुसार-सब प्रकार से वस्तुओं को (परठने योग्य जीवरहित एकान्त स्थण्डिल भूमि में, जहाँ जीवादि उत्पन्न न हों, वहाँ परठना) डालना, डाल देने के बाद पुनः उस वस्तु को ग्रहण न करना परिष्ठापनिकी समिति है। 'मूलाचार' के अनुसार-एकान्त व अचित्त (निर्जीव) स्थान, जो दूर हो, गुप्त (छिपा हुआ) हो, बिल या छेदरहित हो, विशाल हो, जहाँ किसी का विरोध न हो या निन्दा न हो, ऐसे स्थान में विष्ठा, मूत्र आदि क्षेपण करना (डालना) परिष्ठापना समिति है। साधक दावाग्नि से दग्ध प्रदेश, हल से जुता हुआ प्रदेश, श्मशान भूमि प्रदेश, क्षारसहित भूमि या लोग जहाँ रोकें नहीं, ऐसे स्थान में तथा विशाल, त्रसजीवों से रहित एवं जनरहित तथा हरित तृणादिरहित स्थान में भलीभाँति देखकर मल-मूत्रादि का निक्षेपण या विसर्जन करे। 'राजवार्तिक'२ के १. परितः सर्वप्रकार: स्थापनम्-अपुनर्ग्रहणतया न्यासः, तेन निर्वृता परिष्ठापनिकी। __ -आवश्यक शिष्यहिता वत्ति २. (क) तत्त्वार्थसूत्र (हिन्दी विवेचन सहित) (उपाध्याय केवल मुनि), पृ. ४०४-४०५ (ख) एगते अच्चित्ते दूरे गूढे विशालमविगेहे। उच्चारादिच्चाओ पदिठावणिया हवे समिदी ॥१५॥ अवगदजंतु विवित्ते उच्चारादी विसज्जेज्जो ॥३२१॥
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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