SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ @ संवर और निर्जरा का द्वितीय साधन : पंच-समिति ॐ १२१ ॐ . भाषासमिति : संवर और निर्जरा दोनों की कारण ईर्यासमिति के पश्चात् भाषासमिति को संवर और निर्जरा का कारण बताया गया है। यह संवर की कारण है, यह तो स्पष्ट है कि इसमें सावध भाषा से निवृत्ति यानी अशुभ वचनयोग का निरोध और शुभ योग में प्रवृत्ति होती है। परन्तु निर्जरा यह तभी हो सकती है, जब मन ही मन आत्म-स्वरूप में रमणता, आत्म-स्वभाव में तल्लीनता की भावयुक्त भाषा प्रयुक्त की जाए, सावद्य (राग-द्वेष या कषाययुक्त) भाषा के प्रयोग के कारण पूर्ववद्ध अशुभ कर्मों के उदय में आने से पहले उनके अवाधाकालीन स्थिति के काल में राग-द्वेष-कषाययुक्त भाषा के प्रयोग का त्याग करने की आत्म-परिणति की जाए, आत्मा की निर्दोष, निरवद्य आवाज का सुनकर तदनुसार अनुप्रेक्षाभावना की जाए। वाह्याभ्यन्तर तप किया जाए अथवा सावधभाषाजनित पूर्ववद्ध कर्मों के उदय में आने पर उसके कटु-कठोर विपाक (फल) को समभाव से भोगा जाए, कोई व्यक्ति अपनी निन्दा, चुगली, बदनामी, दोषारोपण, द्वेषभाव, ईर्ष्याभावना रखता है, उस समय अपने ही द्वारा पूर्व में किये गए अशुभ कर्मों का फल जानकर उसे समभाव से सहन करके धैर्य और शान्ति से उसे भोगकर उस कर्म को क्षय (निर्जरा) किया जाए। हमने 'वचन-संवर' सम्बन्धी लेख में विस्तार से इसकी चर्चा की है। 'आचार्य हरिभद्र' के अनुसारआवश्यकता होने पर यतनापूर्वक हित, मित, सत्य, असंदिग्ध (स्पष्ट) वचन कहना भाषासमिति है। भाषासमिति : मौनरूप या व्यक्तभाषारूप? शब्द अपने आप में पुद्गल है। अमनोज्ञ या निन्दायुक्त शब्द सुनकर जैसे मनुष्य द्वेषवश उसकी एक प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, इसी प्रकार मनोज्ञ शब्द सुनकर भी राग (आसक्ति) वश दूसरे प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। ये दोनों ही प्रकार की भाषा निरवद्य नहीं है, समितियुक्त सम्यक् भाषा नहीं है। शब्द प्रयोग से दूसरों को अपना भी बनाया जा सकता है और शब्द प्रयोग से शत्रु भी बनाया जा सकता है। शब्द भले ही स्वयं कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है, किन्तु शब्द प्रयोग करने वाला या शब्द सुनकर अशुभ वचन का प्रयोग करता है। कुछ लोगों का मत है, शब्द इतने बखेड़े पैदा करता है तो उसका प्रयोग ही न किया जाए, मौन रखा जाए, वही भाषासमिति हो जाएगी और उससे संवर भी प्रतिफलित होगा। परन्तु भाषासमिति की साधना इतनी सस्ती नहीं है। मौन रखने पर विकारात्मक चिन्तन के रूप में आन्तरिक भाषा का प्रयोग होने से वह भाषासमिति न होकर सावध भाषा प्रवृत्ति हो १. देखें-'कर्मविज्ञान, भा. ३, खण्ड ६' में वचन-संवर की महावीथी' शीर्षक लेख, पृ. ७४९ २. भाषासमिति म हित-मितासंदिग्धार्थ भाषणम्। -आचार्य हरिभद्र
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy