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________________ 3 संवर और निर्जरा का द्वितीय साधन : पंच-समिति कच्चा पर आगे की युगप्रमाण भूमि को देखता हुआ बीज, हरितवनस्पति, प्राणी. पानी, सचित्त मिट्टी आदि को वर्जित करता हुआ चले। वह फिसलन वाले विपय (ऊबड़-खाबड़ ), स्थाणु (पर्वतीय या दूँट वाले) या कीचड़ वाले मार्ग पर गमन न करे, अन्य मार्ग हो तो उक्त मार्ग से संक्रमण करके न जाए। ऐसे संकीर्ण या स्खलित होने वाले मार्ग से जाने वाला साधक गहरे गड्ढे या खाई में गिर सकता है, पैर फिसलने पर भारी चोट या मोच आ सकती है। त्रम अथवा स्थावर प्राणियों की हिंसा हो सकती है। अतः दूसरा सही मार्ग हो तो सुसमाहित संयमी मुनि को उस गलत मार्ग से नहीं जाना चाहिए, जाना ही पड़े तो यतनापूर्वक जाए । जहाँ गते में जलते हुए या बुझे हुए कोयले हों, राख का ढेर हो, तुम का ढेर हो, गोवर पड़ा हो, तो संयमी-साधक को रजयुक्त पैरों से उस पर नहीं चलना चाहिए। न ही साधक वर्षा बरस रही हो, ओम या कोहरा पड़ रहा हो, महावायु (अंधड़ ) चल रही हो, उड़ने वाले पतंगे आदि जीव उड़ रहे हों, उस समय गमन नहीं करना चाहिए और न ही ब्रह्मचारी दान्त साधक को जहाँ ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट होने की आशंका हो, ऐसे वेश्याओं या कुंलटा स्त्रियों के निवासगृहों (वस्ती) से होकर नहीं जाना चाहिए। अन्यथा ऐसा करने से लोगों को ब्रह्मचारी के ब्रह्मचर्य के विषय में शंका हो सकती है अथवा उसकी भी ब्रह्मचर्य से रखलना हो सकती है। इसी प्रकार जहाँ खूंख्वार शिकारी कुत्ते हों, प्रसूति गाय हो, मतवाला साँड, हाथी या घोड़ा उपद्रव कर रहा हो. बालकों का कलह हो रहा हो या परस्पर दो पक्षों में जमकर लड़ाई (युद्ध) हो रही हो, ऐसे मार्ग को दूर से ही छोड़ दे। साधक न तो ऊँचा मुख करके और न बिलकुल नीचे झुककर चले, किन्तु वह अनाकुल, प्रसन्नचित्त होकर तथा इन्द्रियों को यथायोग्य दमन करके चले । दवादब ( जल्दी-जल्दी ), रास्ते में बातें -वोलता हुआ या हँसी-मजाक करता हुआ या ठहाके मारकर हँसता हुआ उच्च-नीच कुलों में न जाए तथा रास्ते में चलता हुआ साधक प्रकाश को, बंद किये हुए द्वार को, दो मकानों की संधि को, परींडा आदि को, मलमूत्र के स्थानों को, स्नानगृह आदि को न देखे, ऐसे शंका स्थानों को टकटकी लगाकर न देखे । राजाओं के, सद्गृहस्थों के मंत्रणा स्थान को, कोटवालों अथवा पुलिसदल के संक्लेशकर स्थान को या गुप्तचरों के कक्ष को दूर से ही त्याग दे । आशय यह है कि साधक अशुभ स्थानों या वातों से दूर रहे, सम्यक् प्रकार से गमनागमन करे तभी ईर्यासमिति का पालन और उससे संबर का उपार्जन हो सकता है। ? अतः करता 228 .१. देखें - दशवैकालिकसूत्र. अ. ५. उ. १. गा. १-१६ की मूल गाथाएँ तथा उनके विवेचन ( आगम प्रकाशन समिति, व्यावर ) २. वही, अ. ५, उ. १. गा. १२-१५
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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