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________________ ॐ ९४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ * संवर का प्रथम साधन : गुप्तित्रय का प्रयोग __ संवर? का सबसे पहला साधन या उपाय तीन गुप्तियाँ हैं-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति। गुप्ति का अर्थ गोपन या रक्षण करना है। मनोगुप्ति. मन की, वचनगुप्ति वचन की और कायगुप्ति काय की रक्षा है। गप्ति प्रविचारअप्रविचार उभयरूपा होने से उसका स्पष्ट अर्थ होता है-अशुभ योग से निवृत्त होकर शुभ योग में प्रवृत्ति करना। स्पष्टार्थ है-अपने विशुद्ध आत्म-तत्त्व की रक्षा. के लिए अशुभ योगों को रोकना। यही तो संवर है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में गुप्ति का लक्षण दिया है-“मन-वचन-काय के योगों का सम्यक् = प्रशस्त निग्रह करना. गुप्ति है।" प्रशस्त निग्रह का अर्थ है-विवेक और श्रद्धापूर्वक मन, वचन और काया को उन्मार्ग से रोकना और सन्मार्ग में लगाना। हठयोग में प्रयुक्त होने वाला योग निग्रह सम्यक् (प्रशस्त) न होने से गुप्ति नहीं है। अर्थात् मन, वचन, कायकी स्वच्छन्द प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति है। विषयसुख की अभिलाषा से की जाने वाली प्रवृत्ति को रोकने के लिए 'सम्यक्' विशेषण दिया है। ‘उत्तराध्ययनसूत्र' में गुप्ति का अर्थ किया गया है-"अशुभ अर्थों (विषयों) से योगों को सर्वथा रोकने (निवृत्ति) को गुप्ति कहा गया है।' 'सर्वार्थसिद्धि' में गुप्ति का निश्चयदृष्टि से लक्षण किया गया है जिसके कारण संसार के कारणों से आत्मा को गोपन = रक्षण होता है, वह गुप्ति है। 'प्रवचनसार' के अनुसार-व्यवहार से स्व-रूप में गुप्त या परिणत होना ही त्रिगुप्तिगुप्त होना है। 'द्रव्यसंग्रह' के अनुसार-निश्चय से सहज शुद्ध आत्मभावनारूप गूढ़ स्थान में, संसार के कारणभूत रागादि के भय से अपनी आत्मा को गोपन करना = रक्षण करना, छिपाना या प्रच्छादन करना अथवा झम्पन या प्रवेशन करना गुप्ति है। 'अनगार धर्मामृत' में गुप्ति का तात्पर्यार्थ दिया गया हैमिथ्यादर्शनादि। आत्मा के प्रतिपक्षियों से रत्नत्रयस्वरूप निजात्मा को सुरक्षित रखने हेतु ख्याति लाभ आदिरे 'विषयों में स्पृहा न रखना गुप्ति है।' 'आवश्यक नियुक्ति में १. तओगुत्तीओ पण्णत्ताओ तं मणगुत्ती वयगुत्ती कायगुत्ती। -स्थानांगसूत्र ३/१/१३४ २. (क) सम्यग् योग निग्रहो गुप्तिः। -तत्त्वार्थसूत्र ९/४, ‘गोपनंगुप्तिः।' (ख) गुत्ती नियत्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो।। -उत्तराध्ययनसूत्र २४/२६ (ग) यतः संसारकारणादात्मनोगोपनं सा गुप्तिः। -स. सि. ९/२/४०९/७ (घ) व्यवहारेण मनोवचन-काय-योगत्रयेण गुप्तः त्रिगुप्तः। __ -प्रवचनसार ता. वृ. २४0/३३३/१२ (ङ) निश्चयेन सहज-शुद्धात्मभावना-लक्षणे गूढस्थाने संसार-कारण-रागादिभयादात्मनो गोपनं प्रच्छादनं झम्पनप्रवेशणरक्षणं गुप्तिः। -द्रव्यसंग्रह टीका ३५/१०१/५ (च) गोप्तुं रत्नत्रयात्मानं स्वात्मानं प्रतिपक्षतः। पापयोगानिगृहीयाल्लोकपंक्त्यादि-निस्पृहः।। -अनगार धर्मामृत ४/१५४
SR No.004247
Book TitleKarm Vignan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages550
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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