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ॐ ९२ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ *
संवर निवृत्तिपरक है __वास्तव में संवर आत्मा का निग्रह करने से होता है। यह निवृत्तिपरक है, दूसरी दृष्टि से देखा जाय तो संवर अवस्था में आत्म-प्रदेशों की चंचलता रुक जाती है, उनकी स्थिरता आती है, तभी उसे संवर कहना चाहिए।' संवर और सकाम निर्जरा की अर्हता कहाँ-कहाँ कैसी-कैसे ? . ..
यह ध्यान रहे कि संवर और निर्जरा (सकाम निर्जरा) .सम्यग्दृष्टि ही कर सकता है। इसलिए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर तीसरे मिश्रगुणस्थान तक संवर
और निर्जरा नहीं है। पहले से तीसरे गुणस्थान तक अशुद्धोपयोग है। चौथे से सातवें गुणस्थान तक शुद्धोपयोग-साधक शुभोफ्योग-प्रधान है। इससे ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों में शुद्धोपयोग-प्रधान है। इसलिए ऊपर के गुणस्थानों में अधिकता से संवर जानना चाहिए। संवर के सत्तावन भेद : मुख्यतया निवृत्तिपरक .
संवर के ये ५७ भेद इस प्रकार हैं-तीन गप्ति, पाँच समिति, दशविध धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षा, बाईस परीषहों पर विजय तथा पाँच प्रकार का चारित्र; ये कुल मिलाकर सत्तावन भेद हैं। 'स्थानांगसूत्र वृत्ति' में भी इन सत्तावन भेदों का उल्लेख है।३
ये सत्तावन ही भेद निवृत्ति-प्रधान इसलिए हैं कि आम्रवों को रोकना एक प्रकार से निवृत्ति ही है। गुप्तियाँ तो निवृत्तिपरक हैं ही, पाँच समितियाँ सम्यक प्रवृत्तिपरक होती हैं, इसलिए असम्यक् प्रवृत्तियों का निरोध करती हैं। इसी प्रकार परीषहों का सामना करके उन पर विजय प्राप्त करना भी सम्यक् प्रवृत्तिपरक है, किन्तु परीषहों के आगमन के समय स्वीकृत संयम-पथ से विचलित न होने, असंयम-पथ से निवृत्ति होने से यह आम्रव-निरोधरूप संवर है।
१. (क) स द्विविधो-भावसंवरो द्रव्यसंवरश्चेति। तत्र संसारनिमित्तक्रियानिवृत्तिर्भावसंवरः।
तन्निरोधे तत्पूर्वकर्म-पुद्गलादान-विच्छेदो द्रव्यसंवरः। -सर्वार्थसिद्धि ९/१/४०६/५ (ख) निराम्रव-सहजस्वभावत्वात् सर्वकर्मसंवरहेतुरित्युक्तलक्षणः परमात्मा, तत्स्वभावनोत्पन्नो
योऽसौ शुद्धचेतनपरिणामः स भावसंवरो भवति, यस्तु भावसंवरात्कारणभूतादुत्पन्नः
कार्यभूतो नवतरद्रव्यकर्मागमनाभावः स द्रव्यसंवरः। -द्रव्यसंग्रह टीका ३४/९६/१ (ग) 'मोक्षप्रकाश' (मुनि धनराज) से भाव ग्रहण, पृ. १८० २. द्रव्यसंग्रह टीका ३४/९६/१0 ३. समिई गुत्ती धम्मो अणुपेह परीसह चरित्तं च। सत्तावनं भेया पणतिगभेयाई संवरणे॥
-स्थानांगसूत्र वृत्ति, स्था. १