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________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन १३५ भावार्थ-वर्णचतुष्ककी बीस प्रकृतिनिको बंध अरु उदय विषे जो भेद न करिए तो चार प्रकृति ग्रहणी, तातें सोलह प्रकृति अबन्धोदय कहिए। चार प्रकृति बन्धोदय कहिए । जातें इन चार ही प्रकृति निविर्षे सोलह प्रकृति गर्भित भई, तातें बन्ध-उदयविर्षे जुदी न गिनिए, चार ही लीजे। आगै आगली गाथामें अबन्धोदय प्रकृति कितनी, ऐसा ठीक कहै हैं वण्ण-रस-गंध-फासा चउ चउ इगि सत्त सम्ममिच्छतं । होंति अबंधा बंधण पण पण संघाद सम्मत्तं ॥१०४॥ एताः अबन्धप्रकृतयः भवन्ति, ए अट्ठावीस प्रकृति अबन्ध हैं। कौन कौन ? वर्णाश्चत्वारः, रसाश्चत्वारः, गन्ध एकः, स्पर्शाः सप्त, सम्यग्मिथ्यात्वं, बन्धनानि पञ्च, संघाताः पञ्च, सम्यक्त्वमिति । वर्ण ४ रस ४ गन्ध १ स्पर्श ७ मिश्रमिथ्यात्व १ बन्धन ५ संघात ५ सम्यक्त्वप्रकृति १ ए अट्ठावीस प्रकृति जाननी । भावार्थ-ए अट्ठावीस प्रकृति बन्धयोग्य प्रकृतिनि विर्षे नाहीं गिनी हैं तातें अबन्ध प्रकृति कहिए। बन्धयोग्य प्रकृति कितनी, यह कहै हैं पंच णव दोण्णि छब्बीसमवि य चउरो कमेण सत्तट्ठी । दोण्णि य पंच य भणिया एदाओ बंधपयडीओ ॥१०॥ एताः बन्धप्रकृतयः भणिताः। ये बन्धप्रकृतियाँ कही हैं। ते कौन कौन ? पञ्च नव द्वे षड्विंशतिः चतस्रः क्रमेण सप्तषष्टिः द्वे पञ्च । ज्ञानावरणीयकी ५ दर्शनावरणीयकी । वेदनीयकी २ मोहनीयकी २६ नामकी ६७ गोत्रकी २ अन्तरायकी ५ ए सर्व एकसौ वीस बन्धयोग्य कहिए। . . भावार्थ-सर्व प्रकृति एक सौ अड़तालीस हैं, तिनमें बन्धप्रकृति एक सौ बीस १२० जाननी। जातें मिथ्यात्वविर्षे मिश्रमिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृतिमिथ्यात्व ये दोनों गर्भित हैं 'बन्धादेगं मिच्छं' इस गाथामें पूर्व ही कहेके न्यायकरि । तातें दोय प्रकृति न गिनी मोहकर्ममें बन्ध प्रकृतिनिविर्षे । और अभेदविवक्षाकरि पंच बन्धन, पंच संघात ये दसों प्रकृति भी बन्धप्रकृतिनिविर्षे नहीं गिनी। जातें पंच शरीरके बन्ध-उदय साथ ही इन दसोंका बन्ध-उदय है, तातें नामकर्ममें पंच शरीर ही विर्षे ये दसों प्रकृति गर्भित कही। और अभेद विवक्षाकरि वर्ण गन्ध रस स्पर्श इन चार प्रकृति विर्षे वर्ण ४ रस ४ गन्ध १ स्पर्श ७ ए सोलह प्रकृति गर्भित भई, तातें ए सोलहु प्रकृति बन्धप्रकृतिविषे नाहीं गिनी। नामकर्ममें बन्धन संघातकी १० प्रकृति, वर्ण चतुष्ककी सोलह प्रकृति इन २६ प्रकृति विना नामकर्मकी सड़सठि ६७ प्रकृति जाननी । तातें मिश्रमिथ्यात्व, सम्यक्त्वप्रकृति मिथ्यात्व, बन्धन ५ संवात ५ वर्णचतुष्ककी १६ इन अट्ठावीस प्रकृति विना १२० प्रकृति बन्ध-योग्य जाननी । आगे उदयप्रकृति कितनी यह कहै हैं पंच णव दोण्णि अट्ठावीसं चउरो कमेण सत्तट्ठी। दोण्णि य पंच य भणिया एदाओ उदयपयडीओ ॥१०६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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