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________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन १३३ तस थावरं च बादर सुहुमं पजत्त तह अपजत्त । पत्त यसरीरं पुण साहारणसरीर थिरमथिरं ॥१७॥ सुह असुह सुहग दुब्भग सुस्सर दुस्सर तहेव णायव्वा । आदिज्जमणादिज्ज जसा अजसकित्ति णिमिण तित्थयरं ॥१८॥ त्रसप्रकृति १ थावरप्रकृति २ बादरप्रकृति ३ सूक्ष्म ४ पर्याप्त ५ अपर्याप्त ६ प्रत्येकशरीर प्रकृति ७ साधारणशरीरप्रकृति ८ स्थिर ६ अस्थिर १० शुभ ११ अशुभ १२ सुभग १३ दुर्भग १४ सुस्वर १५ दुःस्वर १६ आदेय १७ अनादेय १८ यशःकीर्ति १९ अयशःकीर्ति २० निर्माण २१ तीर्थकर २२ ए बाईस प्रकृति जानना। आगे इनको अर्थ कहे हैं-जिस कर्मके उदय द्वीन्द्रियादि जातिविर्षे जन्म होय, सो बसनामकर्म कहिए। जिसके उदय एकेन्द्रियजातिविषे जन्म होय, सो थावरनामकर्म कहिए । जिस कर्म के उदय और करि घात्या जाय ऐसा थूल शरीर होय सो बादरनामकर्म कहिए । जिस कर्म के उदय और करि घात्या न जाय, सो सूक्ष्म नामकर्म कहिए । जिस कमके उदय आहार शरीर इन्द्रिय उच्छ्वास-निःश्वास भाषा मन ये छह पयोप्ति होय सो पर्याप्त नामकम कहिए। जिस कमके उदय कोई पयोप्ति पूर्ण न कर पावे, अन्तर्मुहूर्त्तकाल ताई रहे पाछे मरे सो अपर्याप्तनामकर्म कहिए। इहाँ कोई पूछ है कै अपर्याप्त अपर्याप्त अलब्धिपर्याप्त इनके भेदकरि जीव तीन प्रकार है । अपर्याप्तनामकमके उदय अलब्धपर्याप्त कहिए । अपर्याप्त जोव कौन कर्मके उदय कहावे है ? यहु कहो । ताको उत्तरकै पर्याप्तजीव भी पर्याप्त नामकर्मके उदयतें कहावै। कोई जीव पर्याप्त होना है जब ताई उस जीवकी सब पर्याप्ति पूरी नहीं हो है तब ताई वह जोव अपर्याप्त कहिए है। जब सब पर्याप्ति पूरी करे तब वही जीव पर्याप्त कहिए । तिसतें अपर्याप्त जीव पर्याप्त नामकर्मके उदयतें कहिए । अपर्याप्तनामकर्मके उदयतें अलब्धपर्याप्त होय है। जिसकर्मके उदयतें एक जीवके भोगको कारण एक शरीर होय सो प्रत्येक शरीरनामकर्म कहिए। जिसकर्मके उदयतें अनेक जीवहुके भोगको कारण एक शरीर होय सो साधारणनामकर्म कहिए। जिसकर्मके उदय सात धातु उपधातु अपने-अपने स्थानके विषं स्थिरताको करें सो स्थिरनामकर्म कहिए । जिसके उदय धातु-उपधातु स्थिरताको न करें सो अस्थिर नामकर्म कहिए । जाके उदय सुन्दर मनोज्ञ मस्तकादि भले अंग होय सो शुभनामकर्म कहिए । जाके उदय बुरे अंग होय सो अशुभ नामकर्म कहिए । जाके उदय सबको प्रीति उपजै, सुखवंत होय सो सुभगनामकर्म कहिए । जाके उदय सबको बुरा लागै, दुखी-दरिद्री होय सो दुर्भगनामकम कहिए । जा कर्मके उदय भला स्वर होय सो सुस्वरनामकर्म कहिए । जाके उदय बुरा स्वर होय सो दुःस्वरनामकर्म कहिए । जाके उदय प्रभासंयुक्त शरीर होय सो आदेयनामकर्म कहिए । जाके उदय प्रभारहित शरीर होय, सो अनादेयकर्म कहिए। जाके उदय यश होय सो यशनामकर्म कहिए जाके उदय अपकीर्ति होय सो अयशनामकर्म कहिए । जा कर्मके उदय जागेको जागे प्रमाण लिए इन्द्रियादिकहुकी सिद्धि होय सो निर्माणनामकर्म कहिए । सो निर्माणनामकर्म दोय प्रकार होय-एक स्थाननिर्माण एक प्रमाणनिर्माण । जो चक्षुरादिक इन्द्रियहुके स्थान निर्माये सो स्थाननिर्माण कहिए । जो इन्द्रियहुके प्रमाण करे सो प्रमाणनिर्माण कहिए । जा कर्मके उदय तीर्थकरपदकी विभूति होय सो तीर्थकरनामप्रकृति कहिए । आगे त्रसद्वादशक कहे हैं तस बादर पज्जत्तं पत्त यसरीर थिर सुहं सुभगं । सुस्सर आदिज्जं पुण जसकित्ति निमिण तित्थयरं ॥६६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004239
Book TitleKarmprakruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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